व्यापार / व्यवसाय की शुरुवात ?
उद्योग के लिए इकाई का चुनाव/ व्यापार शुरू करने के प्रकार
किसी भी व्यापार को प्रारंभ करने में बहुत ही महत्वपूर्ण निर्णय होता है कि किस रूप में व्यापारिक इकाई को स्थापित कर व्यापार का प्रारंभ किया जाए . व्यापारिक इकाई के चयन के समय इन पहलुओं पर विशेष ध्यान रखना आवश्यक होता है कि भविष्य में आवश्यकता पड़ने पर उसमें आवश्यक संशोधन किए जा उसके साथ पुनरावृति, पुनर्गठन, समामेलन आदि वाणिज्यिक रणनीतियों का भी आवश्यकता पड़ने पर अनुकरण हो सके व्यापारिक इकाई का निश्चय इस बात पर आधारित रहता है कि व्यापारिक इकाई के उद्देश्य क्या है ,उसके सदस्यों की संख्या कितनी है, उसका कार्यक्षेत्र क्या है, कितनी पूंजी के निवेश की आवश्यकता है, वैधानिक प्रावधान क्या है, कर संबंधी प्रावधान, उपरोक्त चीजों का विश्लेषण करने के पश्चात जो इकाई व्यापार के लिए लाभदायक को उस इकाई की स्थापना का निर्णय लिया जाता है.
व्यवसायिक उद्यमों की प्रकृति एवं प्रकार
भारत में मूल रूप से व्यापारिक उपक्रमों को वैधानिक तौर पर मुख्यतः दो भागों में विभाजित किया गया है जो निम्नलिखित हैं
- निगमित निकाय ( INCORPORATE BODY]
- अनिगमित निकाय
1. निगमित निकाय ( INCORPORATE BODY] :- निगमित निकाय या संस्था से आशय ऐसे निकाय से है जो वैधानिक प्रावधानों के अंतर्गत विधान द्वारा निर्मित प्रक्रिया से वैधानिक एवं सामाजिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए पंजीकृत किया जाता है जिसका संचालन बनाए गए वैधानिक प्रावधानों के अनुसरण में ही किया जाता है निगमित निकायों का उद्देश्य व्यक्तिगत हित दरकिनार करते हुए सामूहिक विकास के लिए अग्रसर होना है| अतः निगमित निकाय के अंतर्गत निम्नलिखित प्रकारों के उद्योग को सम्मिलित किया गया है-
2. अनिगमित निकाय :- अनिगमित निकाय ऐसे निकाय या संस्था होती हैं जिनका वैधानिक रूप से पंजीकरण कराना अनिवार्य नहीं होता है एवं इनका उद्देश्य सामाजिक/ सामूहिक लाभ के विपरीत व्यक्तिगत लाभ के लिए होता है अतः इस प्रकार की व्यापारिक संस्था की स्थापना किसी व्यक्ति द्वारा अपने स्वयं के व्यक्तिगत लाभ एवं विकास हेतु की जाती है
अनिगमित व्यवसायिक उद्यमों के प्रकार
प्रोपराइटरशिप फर्म / एकल स्वामित्व-
प्रोपराइटरशिप फर्म / एकल स्वामित्व व्यापारिक इकाई के रूप में किसी व्यक्ति द्वारा व्यक्तिगत रूप से स्वयं की पूंजी लगाकर, स्वयं के कौशल एवं विवेक के आधार पर अपने व्यक्तिगत विकास के लिए व्यापार की स्थापना कर व्यापारिक गतिविधियों को संचालित किया जाता है इस प्रकार के उद्यम में व्यक्ति का दायित्व व्यक्तिगत एवं असीमित होता है इस इकाई से उत्पन्न लाभ का संपूर्ण अधिकारी भी एकल व्यक्ति ही होता है एकल नियंत्रण होने के कारण संपूर्ण सुरक्षा की जवाबदारी भी एकल व्यक्ति की होती है इस व्यापारिक इकाई से संबंधित किसी भी प्रकार की जानकारी वैधानिक तौर पर कहीं भी प्रेषित करना वैधानिक तौर पर अनिवार्य नहीं होता है अतः यह व्यापारिक उद्यम उस व्यापार के लिए अनुकूल होता है जहां कम पूँजी का निवेश होता है तथा जहां जोखिम कम रहता है एवं व्यापार का आकार भी छोटा एवं संकुचित होता है
हिंदू अविभाजित परिवार / संयुक्त हिंदू परिवार :-
व्यापारिक उद्यम की इस इकाई में व्यापारिक गतिविधियों का संचालन सम्मिलित परिवार के मुखिया कर्ता द्वारा किया जाता है कर्ता परिवार का सबसे बुजुर्ग आदमी बहुत होता है जिसके द्वारा पारिवारिक व्यापार के समस्त निर्णय लिए जाते हैं तथा परिवार के सदस्यों द्वारा कर्ता के निर्णय का पालन किया जाता है परिवार का सदस्य जन्म से ही हिंदू अविभाजित परिवार व्यापार का सदस्य होता है तथा व्यापार में उसका अधिकार जन्म के साथ ही हो जाता है व्यापारिक उद्यम की एक इकाई का संचालन हिंदू परंपराओं के आधार पर उनका अनुसरण कर किया जाता है इसके लिए किसी भी प्रकार से कोई विशेष प्रावधान अधिनियम में नहीं है
साझेदारी फर्म –
साझेदारी फर्म और कुछ नहीं कुछ समझदार अनुभवी व्यक्तियों का परस्पर विश्वास के आधार पर सामूहिक रूप से अपने स्त्रोतों एवं पूंजी को एकत्रित कर स्थापित व्यापारिक उद्यम जो परस्पर सामूहिक लाभ अर्जित करने के उद्देश्य से सामूहिक रूप से या एकल साझेदार द्वारा व्यापारिक गतिविधियों का संचालन करने हेतु स्थापित किया जाता है
साझेदारी अधिनियम 1932 के अनुच्छेद चार में परिभाषित किया गया है कि साझेदारी व्यक्तियों के मध्य स्थापित संबंध है जो उनके द्वारा या उन सभी की ओर से किसी एक के साझेदार द्वारा संचालित व्यापार का लाभ आपस में वितरित करने के लिए सहमत होते हैं
अधिनियम में परिभाषित परिभाषा के आधार पर साझेदारी के निम्नलिखित लक्षण निकल कर सामने आते हैं
1. अनुबंधिय संबंध – साझेदारी की स्थापना साझेदारों के मध्य अनुबंध के आधार पर होती है अतः जो व्यक्ति वैधानिक तौर पर अनुबंध करने मैं सक्षम होता है वह व्यक्ति ही साझेदार बन सकता है
2. व्यवसाय का अस्तित्व – बिना किसी व्यवसाय के साझेदारी के अस्तित्व की कल्पना भी नहीं की जा सकती क्योंकि साझेदार व्यावसायिक उद्देश्य को प्राप्त करने के उद्देश्य से ही साझेदारी में शामिल होते हैं जो व्यापार का संचालन करना चाहते हैं भागना वेबसाइट के साझेदारी फर्म का अस्तित्व असंभव होता है
3. मुनाफे का बँटवारा – साझेदारों द्वारा साझेदारी अनुबंध मुख्य रूप से इसी उद्देश्य के लिए किया जाता है की साझेदारी व्यापार का संचालन कर उपार्जित लाभ को साझेदारों में वितरित किया जा सके
4. पारस्परिक अनुबंध – साझेदारी फर्म का संचालन सभी साझेदारों या उनके द्वारा चुनावित् साझेदारों द्वारा किया जाता है अतः जिनके द्वारा संचालन किया जाता है वह अन्य साझेदारों के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करते हैं
“साझेदारी फर्म मध्यम स्तर के व्यापारिक उद्योग के लिए अन्य व्यापारिक संगठनों की तुलना में संगठनों के आदर्श रूप मैं सिद्ध है “
व्यवसायिक उद्धम निगमित निकाय के रूप में-
सहकारी संगठन (को ऑपरेटिव सोसाइटी] –
को ऑपरेटिव सोसाइटी व्यक्तियों का एक स्वैच्छिक संगठन होता है जो स्वयं के स्वामित्व की पूंजी को व्यापार में लगाकर परस्पर अपने सदस्यों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कार्य करता है यह समानता के सिद्धांत के आधार पर कार्य करता है इसमें सभी सदस्य समान होते है इस संगठन का प्रमुख उद्देश्य लाभ को वरीयता ना देते हुए अपने सदस्यों को आवश्यक सुविधाएँ एवं सहायता उपलब्ध कराना है इसका स्वामित्व सामूहिक रूप से होने पर बड़ी व्यापारिक संस्थाओं द्वारा इसका शोषण नहीं किया जा सकता है जो अधिक लाभ कमाने के उद्देश्य के लिए अपना एकाधिकार स्थापित करना चाहती हैं कोऑपरेटिव सोसाइटी का एक प्रमुख उद्देश्य जो इसे अन्य निगमित निकायों से अलग करता है वह है सेवा प्रदान करना कोऑपरेटिव सोसायटी का प्रथम उद्देश्य अपने सदस्यों को सेवा प्रदान करना है ना कि अधिकतम लाभ कमाना इसकी तुलना में अन्य निगमित निकाय का मुख्य उद्देश्य लाभ में वृद्धि करना होता है कोऑपरेटिव सोसायटी के कुशल संचालन हेतु भारतीय को ऑपरेटिव सोसायटी अधिनियम 1912 लागू किया गया था जिसमें वर्णित वैधानिक प्रक्रिया के माध्यम कोऑपरेटिव सोसायटी स्थापित एवं संचालित होती है
कंपनी –
इस प्रकार की व्यावसायिक इकाई की सबसे प्रमुख विशेषताएँ यहां होती है कि इसका स्वामित्व एवं प्रबंधन दोनों प्रथक होते हैं कंपनी को पूंजी व्यक्तियों के समूह द्वारा एकत्रित कर प्रदान की जाती है जिन्हें अंशधारक कहा जाता है अंशधारक द्वारा कंपनी के संचालन पर कार्य निदेशक मंडल को सौंप दिया जाता है अतः कंपनी एक वैधानिक प्रति व्यक्ति है जिसकी स्थापना विधान द्वारा निर्मित प्रक्रिया के अनुपालन से होती है जिसका निरंतर पृथक वैधानिक अस्तित्व होता है जो इसे अपने सदस्यों से स्वतंत्र करता है साथ ही इसके सदस्यों की मृत्यु से भी इसके अस्तित्व पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है कंपनी की अंश पूँजी चल संपत्ति होती है जिसे स्थानांतरित किया जा सकता है
लिमिटेड लायबिलिटी पार्टनरशिप / सीमित दायित्व साझेदारी (LLP)
एलएलपी एक वैकल्पिक व्यावसायिक इकाई है जो कंपनी के सीमित दायित्व के सिद्धांत एवं साझेदारी फर्म की लचीलता दोनों कल आप प्रदान करती है एलएलपी अपने आप में निगमित निकाय के सिद्धांत एवं साझेदारी फर्म से सिद्धांत दोनों को शामिल करती है इसे कंपनी एवं साझेदारी का मिश्रित रूप भी कहा जाता है एलएलबी का पृथक वैधानिक अस्तित्व होता है जो उसके साझीदारों के परिवर्तित होने पर प्रभावित नहीं होता है एलएलबी एलएलपी अधिनियम 2008 के अंतर्गत पंजीकृत होती है
एलएलपी के ढांचे में एवं इसके संचालन में लचीलापन होने के कारण यह मध्यम स्तर के उद्योगों एवं व्यवसाओं के लिए बहुत ही उपयोगी सिद्ध हुई है साथ ही या पेशेवर लोगों के लिए जैसे कंपनी सेक्रेटरी,चार्टर्ड अकाउंटें,ट कॉस्ट एकाउंटेंट इन सब के लिए भी बहुत ही उपयोगी है
व्यवसायिक इकाई का चुनाव-
ऊपर वर्णित सभी व्यवसायिक इकाइयों में आपस में अनेकों समानताएं एवं समानताएं हैं किसी भी व्यक्ति द्वारा अपने व्यापार की आवश्यकताओं एवं अन्य पहलुओं को ध्यान में रखते हुए अपने लिए सबसे उपयोगी एवं लाभदायक व्यवसाय काल का चुनाव करना चाहिए.
कृपया हमें कृषि उत्पादक संगठन की जानकारी देने का कष्ट करें