बार काउंसिल ऑफ इंडिया के पास वकीलों के बोलने पर रोक लगाने के लिए आदेश पारित करने का कोई अधिकार नहीं है: कर्नाटक उच्च न्यायालय
संदर्भ- एस. बसवराज बनाम बार काउंसिल ऑफ इंडिया एवं अन्य। रिट याचिका संख्या 11480/2024, 27-9-2024
कर्नाटक उच्च न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि बार काउंसिल ऑफ इंडिया (बीसीआई) के पास वकीलों या यहां तक कि बार काउंसिल के सदस्यों के भाषण पर रोक लगाने के लिए आदेश पारित करने का कोई अधिकार नहीं है।
संक्षिप्त भूमिका-
अगस्त 2023 के महीने में कर्नाटक राज्य बार काउंसिल ने मैसूर में राज्य स्तरीय अधिवक्ता सम्मेलन आयोजित किया था। याचिकाकर्ता ने दावा किया कि कुछ व्यय किए गए थे जो रिकॉर्ड में नहीं थे और जिसके परिणामस्वरूप धन का दुरुपयोग हुआ, इसलिए याचिकाकर्ता ने प्रतिवादियों यानी राज्य बार काउंसिल के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई। याचिकाकर्ता द्वारा उक्त प्रतिवादियों के खिलाफ अपराध दर्ज किए जाने के बाद, याचिका में कहा गया कि उसके विरोधी ताकतों ने याचिकाकर्ता को बीसीआई के समक्ष घसीटा है।
जब आरोपों का दौर चल रहा था, तो अप्रैल 2024 में एक पूर्व अध्यक्ष द्वारा बीसीआई को एक पत्र भेजा गया। उक्त पत्र के आधार पर, बीसीआई ने विवादित आदेश पारित किया और इसे कर्नाटक बार काउंसिल के सचिव को सूचित किया। उक्त आदेश को चुनौती देते हुए याचिकाकर्ता ने उच्च न्यायालय में याचिका दायर की। याचिका दायर होने तक, याचिकाकर्ता द्वारा भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 34, 37, 120बी, 403, 406, 409, 420, 465, 468, 471 और 477ए के तहत दंडनीय अपराधों के लिए एक अपराध दर्ज किया गया था।
उच्च न्यायालय में चुनौती –
न्यायालय वरिष्ठ अधिवक्ता एस. बसवराज द्वारा दायर एक रिट याचिका पर विचार कर रहा था , जिसमें बीसीआई(BCI )द्वारा अप्रैल 2024 में अपने संचार के संदर्भ में शुरू की गई कार्यवाही को चुनौती दी गई थी, जिसके तहत उनके अभ्यास पर कुछ प्रतिबंध लगाए गए थे।
न्यायमूर्ति एम. नागप्रसन्ना की एकल पीठ ने कहा, न्यायालय के सुविचारित दृष्टिकोण में, सामान्य पर्यवेक्षण और नियंत्रण, बार काउंसिल ऑफ इंडिया को वकीलों या यहां तक कि बार काउंसिल के सदस्यों के बोलने पर रोक लगाने के लिए ऐसे मौन आदेश पारित करने की शक्ति प्रदान नहीं करेगा, क्योंकि यह सामान्य पर्यवेक्षण और नियंत्रण है, न कि वकीलों के बोलने पर नियंत्रण।
पीठ ने टिप्पणी की कि बीसीआई (BCI)के अध्यक्ष स्पष्ट रूप से ऐसा कोई आदेश पारित नहीं कर सकते, जो किसी अधिवक्ता के मौलिक अधिकार को छीनता हो और बीसीआई(BCI )के अध्यक्ष को सक्षम सिविल न्यायालय या संवैधानिक न्यायालय की शक्ति का हनन करने की अनुमति नहीं दी जा सकती, जैसा कि इस मामले में किया गया है।
याचिकाकर्ता की ओर से अधिवक्ता गौतम ए.आर. उपस्थित हुए, जबकि प्रतिवादियों की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता उदय होला उपस्थित हुए।
उच्च न्यायालय ने उपरोक्त मामले में टिप्पणी की, … रोक आदेश या संयम या निषेधाज्ञा का आदेश केवल तभी पारित किया जाना चाहिए जब किसी मुकदमे की निष्पक्षता के लिए पर्याप्त जोखिम को रोकना आवश्यक हो। किसी भी सामग्री के अभाव में, न्यायालय भी कोई रोक/रोक आदेश पारित नहीं कर सकता है।
उच्च न्यायालय ने कहा कि किसी विशेष विषय पर सभी अधिवक्ताओं पर बीसीआई (BCI)द्वारा प्रयोग की जाने वाली गैग ऑर्डर पारित करने की शक्ति, राज्य बार काउंसिल के सामान्य पर्यवेक्षण और नियंत्रण के तहत प्रयोग की जाने वाली ऐसी शक्ति से परे है। उच्च न्यायालय ने आगे कहा कि गैग ऑर्डर जारी करना एक ऐसी शक्ति नहीं है जिसका अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 7(1)(जी) से अनुमान लगाया जा सके।
उच्च न्यायालय ने कहा कि, इसलिए, अधिवक्ता को बोलने से रोकने का निर्देश देने वाला आदेश, पहली नज़र में, कानून के विपरीत है और इसे बनाए रखना संभव नहीं है। आदेश के अस्थिर होने से इसे समाप्त कर दिया जाएगा।
गैग ऑर्डर से आशय –
बोलने की अभिव्यक्ति पर रोक लगाना या गुलामी करना या मुंह पर कपड़ा बांधना है।गैंग ऑर्डर का अत्यधिक प्रयोग अंग्रेजों द्वारा भारतीय समुदाय और राजनीतिक पार्टियों के विरुद्ध जारी किया था ।स्वतंत्र भारत में कभी-कभी न्यायालय भी ऐसे आदेश पारित करती हैं ।जिससे वादी और प्रतिवादी को बोलने नहीं दिया जाता है। यहां पर बार काउंसिल आफ इंडिया के द्वारा अधिवक्ता के बोलने की अभिव्यक्ति पर रोक को माननीय उच्च न्यायालय ने गलत बताया है।
निष्कर्ष यह कि उच्च न्यायालय ने रिट याचिका को स्वीकार कर लिया और बीसीआई (BCI)द्वारा शुरू की गई कार्यवाही को रद्द कर दिया।
2.वकीलों का आदर करना बेंच का कर्तव्य है, और न्यायिक अखंडता की रक्षा की जाए: बार काउंसिल ऑफ इंडिया (BCI )ने CJI को पत्र लिखा।
पृष्टभूमि-
यह मांग पत्र मद्रास हाईकोर्ट की मदुरै पीठ/इलाहाबाद हाईकोर्ट में हाल ही में हुई घटना के मद्देनजर जारी किया गया, जहां सुनवाई के दौरान जस्टिस आर सुब्रमण्यन को सीनियर एडवोकेट पी विल्सन को फटकार लगाते हुए देखा गया। मामला तमिलनाडु लोक सेवा आयोग (TNPSC) द्वारा दायर अपील से संबंधित था, जिसका प्रतिनिधित्व सीनियर एडवोकेट कर रहे थे। सुनवाई के दौरान, सीनियर एडवोकेट ने हितों के संभावित टकराव की ओर इशारा किया, क्योंकि खंडपीठ के जज (जस्टिस विक्टोरिया गौरी) ने मूल रिट पर सुनवाई की और उसमें सकारात्मक निर्देश दिए। इसके बाद खंडपीठ के सीनियर जज ने सीनियर एडवोकेट को फटकार लगाई।
दूसरा प्रकरण में इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच में न्यायमूर्ति सुनीता चंद्रा ने एक सीनियर एडवोकेट एस सी मिश्रा को चेतावनी देते हुए उनके विरुद्ध मुख्य न्यायाधीश इलाहाबाद उच्च न्यायालय को अवमानना की कार्रवाई के लिए लिखा, जिस पर इलाहाबाद हाई कोर्ट के बार संगठन,उत्तर प्रदेश बार काउंसिल द्वारा विरोध किया गया और मुख्य न्यायाधीश इलाहाबाद उच्च न्यायालय, बार काउंसिल ऑफ इंडिया और सुप्रीम कोर्ट ऑफ़ इंडिया को अपना मांग पत्र सोपा था।
बार काउंसिल ऑफ इंडिया (BCI) ने चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया (CJI) को पत्र लिखकर वकीलों का अनादर करने वाले जजों से निपटने और न्यायिक अखंडता की रक्षा के लिए सुधारों की मांग की। बार काउंसिल आफ इंडिया ( BCI) ने सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ को मांग पत्र लिखकर वकीलों का अनादर करने वाले जजों की घटनाओं से निपटने और न्यायिक अखंडता की रक्षा के लिए सुधारों की मांग की।
मांग पत्र का विवरण निम्न प्रकार है-
1. यह कि मांग पत्र में अध्यक्ष मनन कुमार मिश्रा ने कहा कि न्यायिक आचरण के स्वीकार्य सीमाओं को पार करने की बढ़ती घटनाओं ने जजों के लिए स्पष्ट और लागू करने योग्य आचार संहिता स्थापित करने की तत्काल आवश्यकता पर बल दिया। उन्होंने आगे कहा कि संहिता में शिष्टाचार बनाए रखने और यह सुनिश्चित करने पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए कि जज वकीलों, वादियों और अदालत के कर्मचारियों के साथ सम्मानपूर्वक और पेशेवर तरीके से बातचीत करें और यह सुनिश्चित करें कि अदालती कार्यवाही को नियंत्रित करने के लिए न्यायाधीश का विवेक मामले से अप्रासंगिक टिप्पणियां करने, व्यक्तिगत हमलों की सीमा तक या डराने-धमकाने का माहौल बनाने तक विस्तारित न हो।
2. यह कि मांग पत्र में बताया गया कि वकीलों के प्रति अपमानजनक रवैया कानून के शासन और न्यायपालिका के समुचित कामकाज के लिए खतरा है। इसमें कहा गया कि वकीलों, जजों या अन्य न्यायालय अधिकारियों का अनादर करना मानवाधिकारों के बुनियादी सिद्धांतों का उल्लंघन है, जो गरिमा और पेशेवर सम्मान के अधिकार पर आघात करता है।
मांग पत्र में आगे कहा गया,
न्यायपालिका जो अपने वकीलों को न्याय प्रशासन में समान मानने के बजाय अधीनस्थ मानती है, वह कानूनी व्यवस्था में जनता के विश्वास को खत्म करने का जोखिम उठाती है। वकीलों को बेंच से प्रतिशोध या गैर-पेशेवर आचरण के डर के बिना कानूनी और प्रक्रियात्मक मामलों को चुनौती देने में सक्षम होना चाहिए। इस अर्थ में वकीलों के प्रति अनादर को मानवाधिकार मानदंडों द्वारा गारंटीकृत पेशेवर, सम्मान, गैर-शत्रुतापूर्ण वातावरण में काम करने के उनके अधिकार का उल्लंघन भी माना जा सकता है।
3. यह कि मांग पत्र में यह भी सुझाव दिया गया कि जजों के लिए अनुचित न्यायिक आचरण को संबोधित करने के लिए मनोवैज्ञानिक प्रशिक्षण और अभिविन्यास कार्यक्रम आयोजित किए जाएं। इसमें कहा गया कि जजों के मानसिक स्वास्थ्य का समय-समय पर मूल्यांकन न्यायिक कदाचार के मामलों को रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा, क्योंकि जजों का मानसिक स्वास्थ्य यह सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक है कि वे निष्पक्ष और सम्मानपूर्वक अपना काम करें।
4. यह कि मांग पत्र में आगे कहा गया कि जजों के मानसिक स्वास्थ्य का समय-समय पर मूल्यांकन करके, बर्नआउट, तनाव आदि के शुरुआती लक्षणों की भी पहचान की जा सकती है। उनका समाधान किया जा सकता है। इसमें आगे कहा गया कि मूल्यांकन के परिणामों को गोपनीय रखा जा सकता है और समीक्षा के लिए विशेष रूप से गठित समिति द्वारा निपटा जा सकता है।
5. यह कि मांग पत्र में आगे लिखा है कि –
पारस्परिक सम्मान और समर्थन की संस्कृति को बढ़ावा देकर इस तरह की पहल न केवल जजों के मानसिक स्वास्थ्य को बेहतर बनाने में मदद करेगी, बल्कि कानूनी पेशे की गरिमा को भी बनाए रखेगी और वकीलों के मौलिक मानवाधिकारों की रक्षा करेगी।
6. यह कि मांग पत्र में यह भी कहा गया कि वकीलों की चिंताओं को संबोधित करते हुए न्याय के मौलिक सिद्धांतों को संरक्षित करने के लिए क्या आवश्यक है, जो संपूर्ण कानूनी प्रणाली का आधार है।
मांग पत्र में
न्याय को निष्पक्ष रूप से प्रशासित करने के लिए बार और बेंच को आपसी सम्मान और गरिमा की नींव पर सामंजस्य स्थापित करते हुए काम करना चाहिए। जब वकीलों के साथ असम्मान का व्यवहार किया जाता है या जब न्यायिक आचरण अनियंत्रित होता है तो यह न्यायपालिका में जनता के विश्वास को कमजोर करता है और हमारे कानूनी संस्थानों की विश्वसनीयता को कम करता है।
निष्कर्ष-
यह कि मांग पत्र में कहा गया कि यदि बार के किसी सीनियर सदस्य के साथ ऐसा व्यवहार किया जाता है तो इससे युवा वकीलों के अनुभवों पर चिंता पैदा होती है। न्यायालय की मर्यादा और वकीलों और न्यायपालिका के बीच बातचीत में सुधार की तत्काल आवश्यकता पर प्रकाश डाला जाता है, जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि किसी भी वकील को अपने कर्तव्यों का पालन करते समय सार्वजनिक रूप से फटकार, अपमान या धमकी का सामना न करना पड़े।
यह लेखक की निजी विचार है।