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Summary: सरकार के पास संविधान के अनुच्छेद 39बी के तहत ऐसी नीतियाँ बनाने का प्रावधान है जो सामाजिक कल्याण को बढ़ावा दें। इसका मुख्य उद्देश्य समाज के हित में संसाधनों का प्रबंधन करना है। सवाल है कि क्या निजी संपत्ति का अधिग्रहण राज्य सार्वजनिक कार्यों के लिए कर सकता है। इसे लेकर महाराष्ट्र के 1976 के एक कानून में संशोधन पर विवाद उत्पन्न हुआ, जिसमें राज्य सरकार को खस्ताहाल इमारतों का अधिग्रहण कर गरीब निवासियों के लिए उपलब्ध कराने का प्रावधान किया गया। यह मामला बॉम्बे हाईकोर्ट में चुनौती दिया गया था, जहाँ हाईकोर्ट ने राज्य सरकार के कदम को सही ठहराया। इसके बाद प्रॉपर्टी ऑनर्स एसोसिएशन ने सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की। सुप्रीम कोर्ट में अब 9 जजों की संविधान पीठ, जिसमें मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ शामिल हैं, इस मामले पर सुनवाई कर चुकी है और फैसला सुरक्षित रखा गया है। इससे पहले भी कर्नाटक बनाम रंगनाथ रेड्डी और संजीव कोक मैन्युफैक्चरिंग मामलों में कोर्ट के फैसले आ चुके हैं, जिनमें 39बी की व्याख्या में मतभेद देखा गया था। यह फैसला भारत में सामाजिक न्याय और असमानता के संदर्भ में एक महत्वपूर्ण कदम हो सकता है। उम्मीद की जा रही है कि यह निर्णय सरकार के अधिकारों और व्यक्तिगत संपत्ति के संतुलन पर स्पष्टता लाएगा।

किसी व्यक्ति या समुदाय की निजी संपत्ति को सार्वजनिक कार्य  के लिए सरकार अपने नियंत्रण में ले सकती है या नहीं?

शायर मदन मोहन मिश्रा उर्फ दानिश ने कहा कि -यह कहां की रीत है जागे कोई सोए कोई रात सब की है तो सबको नींद आनी चाहिए।

चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूंड़ की अगुवाई वाली 9 जजों की बेंच करीब तीन दशक पुराने इस विवाद पर सुनवाई पूरी कर चुकी है. चूंकि जस्टिस चंद्रचूड़ 10 नवंबर को रिटायर होने वाले हैं, फैसला कभी भी आ सकता है. समझिए ये पूरा विवाद है क्या और क्यों हर कोई इसके दायरे में है.

शायर मदन मोहन मिश्रा उर्फ दानिश का यह शेर 30 साल पुराने मामले को समझने में कुछ मदद कर सकता है

जो भारत में सामाजिक न्याय और निजी संपत्ति पर सरकार का अधिकार किस कदर है, इससे जुड़े दशकों पुराने विवाद की दशा और दिशा तय करेगा.

इस पर सुप्रीम कोर्ट अगले हफ्ते से पहले फैसला सुना सकता है. मामला है संपत्ति के बंटवारे का. मदन मोहन मिश्रा के शेर की रौशनी में कहें तो सवाल है कि क्या ‘रात’ पर सभी का हक समान रूप से है या एक की ‘नींद’ इतनी सर्वोपरि है कि दूसरा जाग रहा है या सो रहा है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता? इस शेर ने क्या मामला और उलझ दिया.यह समझिए कि

एक सवाल पर फैसला होना है – सवाल है कि किसी व्यक्ति या समुदाय की निजी संपत्ति को सार्वजनिक कार्य के लिए सरकार अपने नियंत्रण में ले सकती है या नहीं? चीफ जस्टिस चंद्रचूंड़ की अगुवाई वाली 9 जजों की बेंच सुनवाई पूरी कर चुकी है. चूंकि जस्टिस चंद्रचूड़ 10 नवंबर को रिटायर होने वाले हैं, फैसला कभी भी आ सकता है?

यह कि भारत में असमानता का आलम हैकि– 2023 में ऑक्सफैम की आई एक रिपोर्ट की मानें तो भारत के टॉप 5 फीसदी लोगों के पास देश की कुल संपत्ति का कम से कम 60 फीसदी हिस्सा था. जबकि गरीबी का जीवन जी रही 50 फीसदी आबादी देश की महज 3 फीसदी संपत्ति के साथ जिंदगी की जद्दोजहद को मजबूर है.

क्या निजी संपत्ति भी समाज की है? – असमानता की इस तरह की खाई को पाटने के सवाल पर लोकसभा चुनाव में सभी राजनीतिक दल बहस कर रहे थे, तभी सुप्रीम कोर्ट के 9 जजों की संवैधानिक पीठ इस सवाल पर सुनवाई कर रही थी कि क्या किसी की निजी संपत्ति को कब्जे में ले कर सरकार उसे सार्वजनिक कार्य के लिए प्रयोग कर सकती हैं ?

विवाद की जड़ –

अनुच्छेद 39B की व्याख्या-

संपत्ति के बंटवारे वाले इस विवाद की जड़ में है संविधान का अनुच्छेद 39बी. अदालत की अलग-अलग बेंच इसी अनुच्छेद की व्याख्या में उलझती रही है. दरअसल 39बी भारतीय संविधान के चौथे भाग में आता है.

संविधान का ये हिस्सा नीति निर्देशक तत्त्व ( Directive Principles of State Policy DPSP) कहलाता है. जैसा इसके नाम ही से स्पष्ट है,  नीति निर्देशक तत्त्व में कही गई बातों को लागू करने के लिए सरकार बाध्य नहीं है. ये महज संकेत है, जिसे ध्यान में रखकर नीति बनाने की अपेक्षा संविधान को है.

39बी में कहा गया है कि राज्य ऐसी नीति बनाए जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि जो लोगों के संसाधन हैं, उसके स्वामित्व और नियंत्रण का बंटवारा इस तरह किया जाए ताकि उससे आम लोगों की भलाई अधिक से अधिक हो सके.

यह कि करीब पांच दशक से 39बी की व्याख्या उलझी पड़ी है. मूल बात यह कि – कौन सी चीज ‘समुदाय, समाज का संसाधन’ है और क्या नहीं? विभिन्न न्यायिक निर्णय द्वारा इस विषय में अनुच्छेद 39 B की व्याख्या की है जिसमें कुछ का विवरण निम्न प्रकार है-

A. कर्नाटक सरकार बनाम रंगनाथ रेड्डी 1977-

 7 जजों का फैसला1977 की बात है जब सुप्रीम कोर्ट ने इस सिलसिले में एक महत्त्वपूर्ण फैसला सुनाया. मामला कर्नाटक सरकार बनाम रंगनाथ रेड्डी के नाम से अदालत में सुना गया. 7 जजों की पीठ ने 4ः3 के बहुमत से यह फैसला सुनाया कि किसी के निजी संसाधन को ‘समुदाय का संसाधन’ नहीं माना जा सकता.इस फैसले से जिन तीन जजों को आपत्ति थी, उनमें से एक जस्टिस कृष्णा अय्यर (अब रिटायर्ड) का अल्पमत का फैसला बाद के बरसों में बेहद प्रासंगिक और प्रभावशाली होता चला गया. जस्टिस अय्यर ने कहा था निजी स्वामित्त्व वाले संसाधनों को भी समुदाय का ही संसाधन माना जाना चाहिए.उन्होंने इसके लिए एक दिलचस्प तर्क दिया था. तर्क ये कि – दुनिया की हर मूल्यावान या इस्तेमाल की जाने वाली हर चीज भौतिक संसाधन है. और चूंकि व्यक्ति (जिसका उस पर स्वामित्त्व है) भी समुदाय का हिस्सा है, उसके संसाधन को भी समुदाय के हिस्से के तौर पर देखा जाना चाहिए.

B. संजीव कोक मैन्युफैक्चरिंग कंपनी बनाम भारत कोकिंग कॉल 1983 – 5 जजों का फैसला

1983 में  मामले में पांच जजों की बेंच के सामने फिर एक बार मिलता-जुलता सवाल था. सवाल यह कि कोयला खदानों और उनसे जुड़े कोक ओवन प्लांट का जो राष्ट्रीयकरण केंद्र सरकार ने कानून के जरिये किया है, वह जायज है या नहीं?

तब 5 जजों की बेंच ने जस्टिस अय्यर के ही फैसले के आधार पर राष्ट्रीयकरण वाले केंद्र सरकरा के कानून को दुरुस्त बताया था. साथ ही, यह भी स्पष्ट किया था कि संविधान का अनुच्छेद 39बी निजी स्वामित्त्व वाली संपत्ति को सार्वजनिक स्वामित्त्व वाली संपत्ति के तौर पर तब्दील करने का दायरा देता है.

C. मफतलाल इंडस्टरीज लिमिटेड बनाम भारत सरकार1996 – 9 जजों का फैसलासाल 1996 आया. सुप्रीम कोर्ट के सामने मफतलाल इंडस्ट्रीज लिमिटेड बनाम भारत सरकार नाम से मुकदमा सुना जा रहा था. जस्टिस परिपूर्णन ने भी 39बी की व्याख्या के लिहाज से जस्टिस अय्यर और संजीव कोक मैन्युफैक्चरिंग मामले में कही गई बातों से सहमति जताया.

वर्तमान विवाद सुप्रीम कोर्ट कैसे पहुंचा?

सुप्रीम कोर्ट के सामने ये मामला महाराष्ट्र सरकार के 1976 के एक कानून और उसमें हुए संशोधन को लेकर पहुंचा.

1976 में महाराष्ट्र की सरकार एक कानून लेकर आई. नाम था – Maharashtra Housing and Area Development Act (MHADA)1976 यानी महाराष्ट्र आवास और क्षेत्र विकास कानून.1976 इसके अंतर्गत शहर की पुरानी और खस्ताहाल इमारतों से जुड़ी एक समस्या को खत्म करने का उद्देश्य देखा गया.

इसके प्रावधान में नए कानून में यह किया गया कि वे इमारतें जो अब समय के साथ असुरक्षित होती जा रही हैं, लेकिन फिर भी वहां कुछ गरीब परिवार किरायेदार के तौर पर रह रहे हैं, उन्हें मुंबई बिल्डिंग रिपेयर एंड रिकंस्ट्रक्शन बोर्ड को एक सेस (एक तरह का टैक्स) देना होगा, जिससे इमारतों का मरम्मत और जीर्णोद्धार हो सके.यहां तक कोई दिक्कत नहीं थी. दिक्कत हुई साल 1986 में. इस साल महाराष्ट्र सरकार ने अनुच्छेद 39बी का इस्तेमाल करते हुए कानून में दो संशोधन किया. इनमें से एक का मकसद जरुरतमंद लोगों को उन जमीनों और इमारतों का अधिग्रहण कर दे देना था, जहां वे रह रहे हैं.

दूसरा संशोधन यह हुआ कि राज्य सरकार उन इमारतों और जमीन का अधिग्रहण कर सकती है जिन पर पिछले कानून के बाद ही से सेस (कर) लगाया जा रहा है. शर्त है कि वहां रह रहे 70 फीसदी लोग सरकार से अधिग्रहण का अनुरोध करें.

नतीजा मुंबई में इन संपत्तियों के मालिकों ने 1976 के कानून में हुए संशोधन को चुनौती दी. मुंबई के प्रॉपर्टी ऑनर्स एसोसिएशन ने संशोधन को बॉम्बे हाईकोर्ट में चुनौती दी.इनका दावा था कि महाराष्ट्र सरकार का संशोधन संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत प्रॉपर्टी ऑनर्स यानी जिनकी वह संपत्ति है, उनके समानता के अधिकार का उल्लंघन करती है।

लेकिन  बॉम्बे हाईकोर्ट ने माना था कि समानता के अधिकार का हवाला देते हुए अनुच्छेद 39 बी के तहत बनाए गए कानून को चुनौती नहीं दी जा सकती.

अंत में दिसंबर 1992 में प्रॉपर्टी ऑनर्स एसोसिएशन ने सुप्रीम कोर्ट का रूख किया और हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ अपील की. अब सुप्रीम कोर्ट में मूल सवाल यह बन गया है कि संविधान के अनुच्छेद 39बी के तहत निजी स्वामित्त्व वाले संसाधन या यूं कहें कि निजी संपत्ति को सार्वजनिक कार्य का संसाधन माना जा सकता है या नहीं?

सुप्रीम कोर्ट की कार्यवाही –

2001 में सुप्रीम कोर्ट के 5 जजों की पीठ ने सुनवाई की और इसे एक बड़ी बेंच के सामने भेज दिया क्योंकि संजीव कोक वाले 1983 के फैसले में पांच जजों की बेंच इस लिहाज से पहले ही एक फैसला कर चुकी थी. 7 जजों की बेंच ने भी अगले साल सुनवाई किया मगर वह भी इसे नियत मुकाम पर नहीं पहुंचा सकी, मामला 9 जजों को भेज दिया गया.

आखिरकार वर्तमान में 9 जजों की संविधान पीठ जिसमें चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस हृषिकेश रॉय, जस्टिस बी.वी. नागरत्ना, जस्टिस सुधांशु धूलिया, जस्टिस जे.बी. पारदीवाला, जस्टिस मनोज मिश्रा, जस्टिस राजेश बिंदल, जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा और जस्टिस ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह ने 23 अप्रैल 2024 से इस मामले को विस्तार से सुना.1 मई को 5 दिन की सुनवाई के बाद फैसला सुरक्षित रख लिया. अब सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले से यह साफ हो जाएगा कि निजी संपत्ति  पर किसी सार्वजनिक कार्य के लिए  हक बनता है या नहीं? ये फैसला एक तरह से सामाजिक न्याय की लड़ाई को एक नया मोड़ देने वाला होगा.

निष्कर्ष

आजकल में ही उपरोक्त याचिका पर माननीय सुप्रीम कोर्ट अपना मत प्रस्तुत कर सकती है। जिससे स्पष्ट हो पाएगा कि सामाजिक न्याय के लिए सरकार कितनी वचनबद्ध है। सर्वप्रथम सरकार का देश के  संविधान के  नीति निर्देशक तत्वों के अनुसार नीतियों का निर्माण किया जाना चाहिए, क्योंकि यह विषय पिछले पांच दशक से विवादों से जुड़ा हुआ है, पूर्व में भी 5 और 7 न्यायमूर्तियों की बेंच द्वारा कोई स्पष्ट निर्णय नहीं दिया गया है ।इसलिए आशा है कि मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूंड़  के नेतृत्व में एक स्पष्ट आदेश पारित होगा ।

यह लेखक के निजी विचार है।

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