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केन्द्र और राज्य सरकारों की उदासीनता और निष्क्रियता के कारण भारतवर्ष में जिला एवं राज्य उपभोक्ता फोरम में अध्यक्ष और सदस्यों के खाली पड़े पदों के कारण उपभोक्ता संरक्षण आज हाशिये पर है.

मध्यप्रदेश के 51 जिलों के उपभोक्ता आयोगों में पांच अध्यक्ष और 56 सदस्यों के पद रिक्त हैं। वहीं राज्य उपभोक्ता आयोग में दो सदस्य के पद खाली होने से एक ही बेंच लग रही है।

करीब तीन साल से आयोग में अध्यक्ष व सदस्यों की भर्ती नहीं हो पाई है। इस कारण राज्य उपभोक्ता आयोग में करीब 10 हजार से अधिक और जिला आयोग में 20 हजार मामले लंबित हैं। जिला उपभोक्ता आयोग में कई केस 2009 से लंबित हैं।

यही हाल लगभग हर प्रदेश का है.

20 जुलाई, 2020 को नया उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 को लागू किया गया जो उपभोक्ताओं को सशक्त करने के साथ उन्हें इसके विभिन्न अधिसूचित नियमों और प्रावधानों के माध्यम से उनके अधिकारों की रक्षा करने में मदद करेगा।

नया अधिनियम पुराने उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 की तुलना में तीव्रता से और कम समय में कार्यों का निपटान करेगा। पुराना अधिनियम न्याय हेतु सिंगल-प्वाइंट पहुँच के कारण ज्यादा समय लेता था।

उपभोक्ताओं के साथ धोखाधड़ी,कालाबाजारी, मिलावट, अधिक मूल्य पर समान को देना, कम नापतोल, वारंटी कार्ड देने के बाद भी सर्विस नहीं देना तभा हर जगह पर ठगा जाना आदि समस्याओं के समाधान के लिए ‘उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम  बनाया गया। जो विशेष रूप से उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा करता है उन्हें गलत या फिर एक्सपायरी सामन को ना उपयोग में लाए इसके लिए कुछ उत्तरदायित्व एवं अधिकार भी दिए गए हैं।

माल या सेवा का  मूल्य और दावाकृत प्रतिकर की धनराशि के योग के आधार पर अधिनियम की धारा11(1) के अनुसार रू. 20 लाख तक के मामले जिला मंचों में, धारा 17(1)(क) के अनुसार रू. 20 लाख के ऊपर से रू. 1 करोड़ तक के मामले व जिला मंचों के निर्णयों के विरूद्ध अपीलें राज्य आयोग में और धारा 21(क) के अनुसार रू. 1 करोड़ से ऊपर के मामले व राज्य आयोग के निर्णयों के विरूद्ध अपीलें राष्ट्रीय आयोग में पंजीकृत किये जाने का प्रावधान हैं।

अधिनियम की धारा 23 में राष्ट्रीय आयोग के निर्णय के विरूद्ध उच्चतम न्यायालय में अपील किये जाने का प्रावधान है।

यह अधिनियम दंडात्मक या निरोधक स्वरूप न होकर क्षतिपूरक स्वरूप का है।

उपभोक्ता कानून की उपयोगिता समझते हुए भारत भर में जिला उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग और राज्य उपभोक्ता विवाद निवारण आयोगों के अध्यक्षों, सदस्यों और कर्मचारियों की नियुक्ति करने में सरकार की निष्क्रियता को चुनौती देते हुए सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की गई थी।

याचिका में दलील दी गई थी कि 20.07.2020 को उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 लागू हो गया और 2019 में जिला, राज्य और राष्ट्रीय आयोग के लिए आर्थिक क्षेत्राधिकार भी बदल गया।

सुप्रीमकोर्ट ने जिला एवं राज्य उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग में नियुक्तियों में देरी पर नाराजगी जताते हुए शुक्रवार को कहा कि अगर सरकार न्यायाधिकरण नहीं चाहती है, तो उसे इससे संबंधित कानून समाप्त कर देना चाहिए।

जस्टिस एसके कौल और जस्टिस एमएम सुंदरेश की पीठ ने कहा कि यह अफसोसजनक है कि शीर्ष अदालत से न्यायाधिकरणों में रिक्तियों की समीक्षा करने और उन्हें भरने के लिए कहा जा रहा है।

पीठ ने कहा, ‘यदि सरकार न्यायाधिकरण नहीं चाहती है, तो वह कानून निरस्त कर दे। हम यह देखने के लिए अपने अधिकार क्षेत्र का विस्तार कर रहे हैं कि रिक्तियों को भरा जाए। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि न्यायपालिका से यह मामला देखने को कहा गया है। यह बहुत अच्छी स्थिति नहीं है।’

जिला और राज्य उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग के अध्यक्ष और इसके सदस्यों / कर्मियों की नियुक्ति में सरकारों की निष्क्रियता और पूरे भारत में अपर्याप्त बुनियादी ढांचे के मामले का स्वत: संज्ञान लेने के बाद शीर्ष अदालत इस पर सुनवाई कर रही है।

शीर्ष अदालत ने 11 अगस्त को केंद्र को निर्देश दिया था कि वह 8 सप्ताह में रिक्त स्थानों पर भर्ती करे।

पीठ ने कहा कि नियुक्ति प्रक्रिया बंबई हाईकोर्ट के फैसले से प्रभावित नहीं होनी चाहिए, जिसने कुछ उपभोक्ता संरक्षण नियमों को रद्द कर दिया था।

पीठ ने कहा, ‘हमारे द्वारा शुरू की गई प्रक्रिया को स्थगित नहीं रखा जाना चाहिए। हमारा विचार है कि हमारे द्वारा निर्धारित समय और प्रक्रिया जारी रहनी चाहिए क्योंकि कुछ नियुक्तियां की जा चुकी हैं और अन्य नियुक्तियां अग्रिम चरण में हैं।’

शायद माननीय उच्च न्यायालय की तल्ख़ टिप्पणी के बाद सरकारें चेते और उपभोक्ता संरक्षण कानून को मजबूत बनाने और उपभोक्ताओं को न्याय दिलाने की ओर कदम उठाते हुए रिक्त पदों की नियुक्ति करें.

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