गुड्स एंड सर्विस टैक्स को भारत में 2017 में पेश किया गया था और अब 5 साल से अधिक समय बीत चुका है लेकिन जीएसटी परिषद और वित्त मंत्रालय के लगातार प्रयासों के बाद भी व्यापार और उद्योग इसके साथ बहुत सहज नहीं हैं।
आइए उन आवश्यक कदमों पर एक नजर डालते हैं और ये कदम वे सुधार होंगें जिनके लागू होने पर वस्तु एवं सेवा कर को अप्रत्यक्ष करों की एक बहुत ही सरल और उपयोगी एवं करदाता के अनुकूल प्रणाली बन सकेगी ।आइये देखें कुछ उपयोगी सुझाव :-
1.जीएसटी एक आपूर्तिकर्ता अर्थात विक्रेता आधारित आधारित बनता जा रहा है और इस समय आपूर्तिकर्ताओं द्वारा प्रदान की गई सभी जानकारी ही इस कर प्रणाली का आधार है और इस तरह से केवल एकतरफा मामला बनता जा रहा है और इस कारण से ईमानदार खरीददार अपनी इनपुट क्रेडिट रुकने के कारण संकट का सामना कर रहें हैं.
हालांकि जीएसटी की अवधारणा को जब पहली बार देश में प्रस्तुत किया गया थी यह एकतरफा प्रणाली नहीं थी. प्रारम्भ में जो रिटर्न भरने की स्कीम बनाई गई थी प्राप्तकर्ता के पास उस विभाग को सूचित करने का भी अवसर होता था जिससे उसने माल खरीदा है लेकिन यह प्रणाली कभी लागू ही नहीं हो पाई।
खरीददार की ITC को रोकने की प्रक्रिया इस समय केवल आपूर्तिकर्ता या सप्लायर द्वारा प्रस्तुत की गई जानकारी जो कि वह उसने GSTR-1 पर आधारित है और उस स्थिति में यदि किसी सप्लायर ने सामान बेचने के बाद भी इसे नहीं दिखाया है या खरीदार से एकत्र किए गए कर का सरकार को भुगतान नहीं किया है और वर्तमान में उस मामले और तथ्य की सच्चाई की जानकारी के पहले ही विभाग क्रेता की ITC को रोक रहा है।
यह एक बहुत बड़ी समस्या है और इस समस्या का समाधान खरीदारों को अपने खरीदारों का विवरण दिखाने की अनुमति देना है। यह जीएसटी की मूल योजना में था और इसे निर्दोष और कानून का पालन करने वाले खरीददारों की समस्या को दूर करने के लिए लागू किया जाना चाहिए।
क्रेता को अपने रिटर्न में अपने द्वारा खरीद का विवरण मय विक्रेता के नाम के साथ देने की प्रणाली प्रारम्भ होनी चाहिए और इसके बाद क्रेता एवं विक्रेता द्वारा प्रस्तुत विवरणों का मिलान किया जाना चाहिए और मिस्मेच को क्रेता और विक्रेता दोनों के खातों में पोस्ट किया जाना चाहिए और यदि प्राप्तकर्ता यह साबित कर देता है कि उसकी खरीदारी वास्तविक है और उसके द्वारा विक्रेता को कर का भुगतान किया गया है तो मिसमैच के सम्बन्ध में खरीददार के इनपुट क्रेडिट को रोकने की जगह इसकी वसूली विक्रेता से की जानी चाहिए.
2. बाधारहित इनपुट क्रेडिट GST की शुरुआत से ही करदाताओं को किया गया वादा था लेकिन पिछले 5 वर्षों में ITC व्यवसाय करने में प्रमुख समस्या बनती जा रही है। जीएसटी कानून के एक प्रावधान के अनुसार जो कि केंद्रीय माल और सेवा कर अधिनियम 2017 की धारा 16(4) में दिया गया है जिसके अनुसार कोई भी क्रेता उसके अनुसार एक निश्चित तिथि के बाद एक डीलर किसी विशेष वित्तीय वर्ष के लिए ITC का दावा नहीं कर सकता है अर्थात एक निश्चित तिथि तक ITC नहीं ली है तो फिर इस ITC को क्लेम नहीं किया जा सकता है।
वर्तमान में यह तिथि वित्तीय वर्ष के लिए उस वर्ष के बाद वाले वर्ष की 30 नवंबर है।लेकिन यह तिथि व्यावहारिक तिथि नहीं है। ज्यादातर मामलों में गलतियों का पता तब चलता है जब वार्षिक रिटर्न दाखिल किया जाता है और आईटीसी प्रतिबंध की यह तारीख डीलर द्वारा वार्षिक रिटर्न दाखिल करने तक आगे बढ़ाई जानी चाहिए। यदि डीलर देय तिथि के बाद वार्षिक रिटर्न दाखिल कर रहा है तो वह विलंब शुल्क का भुगतान कर रहा है इसलिए उस स्थिति में उसका ITC इन प्रावधानों के कारण प्रतिबंधित नहीं होना चाहिए क्योंकि एक बार कर सरकार को प्राप्त हो जाने के बाद ITC खरीदार का अधिकार होना चाहिए।
यहां देखिए सरकार को टैक्स पहले ही मिल चुका है और अगर देर से चुकाया गया तो सप्लायर से ब्याज भी वसूला गया है तो इस इनपुट क्रेडिट को दिए जाने पर रेवेन्यू पर किसी भी तरह का नकारात्मक प्रभाव न पड़े।
3. RCM को भारत में GST की शुरुआत के समय बहुत व्यापक तरीके से पेश किया गया था लेकिन थोड़े ही समय में ही इसे अव्यवहारिक प्रावधान माना गया था इसलिए चार माह के भीतर इसे बहुत बड़े हिस्से से हटा दिया गया था लेकिन अभी भी विशिष्ट RCM कानून में मौजूद है और यह बचा हुआ RCM भी बहुत से डीलर्स के लिए परेशानी बना हुआ है । यहां RCM का मतलब है, ज्यादातर मामलों में, डीलर RCM का भुगतान करें और उसी का ITC तुरंत प्राप्त कर ले , इसलिए जहां तक सरकार के राजस्व का संबंध है, इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। इन मामले में देखें तो यह केवल एक तकनीकी औपचारिकता है लेकिन कुछ मामलों में डीलरों ने अपने रिटर्न में आरसीएम दिखाने की औपचारिकता पूरी करने में विफल रहे जबकि उन्होंने पूरा टैक्स चुकाया है। इन डीलरों के इस तकनीकी दोष से मुक्त करने के लिए एक माफी योजना होनी चाहिए क्यों कि जीएसटी के प्ररम्भिक 5 वर्षों में इस सम्बन्ध में डीलर्स से यह गलती बहुत हुई है लेकिन जैसा कि ऊपर बताया गया है कि अधिकांश मामलों में सरकार को कोई राजस्व का कोई नुक्सान भी नहीं हो रहा है .
4. GST को भारत में सबसे बड़े कर सुधार के रूप में पेश किया गया था लेकिन शुरुआत में औपचारिकताएं और प्रक्रियाएं बहुत जटिल थी और अभी भी सरलीकरण नहीं हुआ है। डीलरों द्वारा बहुत सी निर्दोष गलतियाँ की गईं और अब उन्हें बहुत सारे नोटिस प्राप्त हो रहे हैं जो बाद में मुकदमेबाजी और विवादों में परिवर्तित हो जाएंगे। सभी गलतियां टैक्स चोरी नहीं होती हैं लेकिन ज्यादातर मामलों में ये गलतियां केवल निर्दोष एवं तकनीकी गलतियां होती हैं। डीलर्स द्वारा व्यक्तिगत नोटिसों के ढेर सारे जवाब देने के लिए उन पर बोझ डालने के बजाय, मामले को एमनेस्टी योजना के साथ सुलझाया जाना चाहिए ताकि वे इन गलतियों को व्यवस्थित तरीके से विभाग को सूचित कर सकें और सुधार कर सके।
आरसीएम, धारा 16(4) आदि भी एमनेस्टी स्कीम का हिस्सा होना चाहिए और एमनेस्टी को सिर्फ लेट फीस माफ़ी तक ही सीमित नहीं रखना चाहिए और यहां यह भी ध्यान दिया जाए कि अंतिम एमनेस्टी स्कीम में कंपोजिशन डीलरों को बिना वजह इस स्कीम से बाहर कर रखा गया था। इस एमनेस्टी स्कीम में एक विशेष राहत कम्पोजीशन डीलर्स को भी शामिल की जानी चाहिए जिसमें उनके पिछले छूटे हुए रिटर्न्स भी शामिल होने चाहिए.
5. उन डीलरों के मामले में जिनका प्लांट और मशीनरी जैसी अचल संपत्तियों में निवेश बहुत अधिक है और उस स्थिति में उनका ITC का क्रेडिट बैलेंस बहुत अधिक हो जाता है और चूंकि वे पंजीकृत डीलरों से कच्चा माल और सेवाएं खरीद भी खरीदती है जिससे भी उनकी इनपुट क्रेडिट और भी बढ़ती जाती है , इसलिए उन्हें एक लम्बे समय तक उनकी कार्यशील पूंजी इस तंत्र में फंस जाती है. इन डीलरों को इस तरह एकत्र आईटीसी अपनी कार्यशील पूंजी के ब्लाक होने से कुछ राहत देने के लिए एक प्रावधान होना चाहिए।
मान लीजिये कर का “कुछ प्रतिशत जैसा कि व्यवहारिक रूप से विशेषज्ञों की समिति तय करे को रोककर” शेष रकम रिफंड कर दी जानी चाहिए ताकि इस तरह के डीलर्स की कार्यशील पूँजी पर लगने वाली लागत को कम कर उन्हें वांछित राहत दी जा सके.
6. भारतीय संविधान के अनुसार स्थापित एक जीएसटी परिषद है जो सरकार को जीएसटी के संबंध में सलाह देने का कार्य करती है । इस GST काउंसिल की सलाह के अनुसार धारा 49(10) के अनुसार एक प्रावधान लाया गया जिसके अनुसार एक ही पेन नम्बर पर लिए गए अलग – अलग रजिस्ट्रेशन को आपस में केश लेजर में रखी रकम को आपस में ट्रान्सफर करने की सुविधा दी गई थी लेकिन अभी भी जीएसटी नेटवर्क पर यह सुविधा शुरू नहीं हुई है . 5 जुलाई 2022 को यह परिवर्तन कानून में किया गया था लेकिन अभी तक भी यह सुविधा जीएसटी नेटवर्क पर उपलब्ध नहीं है . पोर्टल सुविधा पर इतना विलंब वास्तविक डीलरों के लिए इसकी आवश्यकता के लिए बहुत अधिक समस्या पैदा कर रहा है। जीएसटी परिषद के निर्णय को जल्द से जल्द लागू किया जाना चाहिए लेकिन इस मामले में सरकार द्वारा निर्णय लागू किया गया था लेकिन व्यावहारिक रूप से जीएसटी नेटवर्क पर सुविधा की कमी के कारण अभी भी शुरू नहीं किया गया है। इस सुविधा को शीघ्र प्रारम्भ की जानी चाहिए.
जीएसटी कौंसिल के फैसले व्यवहारिक रूप से शीघ्र लागू किये जाने चाहिए .
8. जीएसटी के तहत ब्याज दर 18% है जो इस तथ्य को देखते हुए बहुत अधिक है कि बैंक दर अब इसके आस पास भी नहीं है . जीएसटी के देरी से किये गए भुगतान के लिए ब्याज की दर बैंक ऋण दर से 2% अधिक होनी चाहिए। 18% की दर तय की गई थी जब बैंक ऋण की दर बहुत अधिक थी लेकिन अब जब बैंक की दर इतनी अधिक नहीं है तो यह 18% की दर बहुत अधिक है और इसमें संशोधन की आवश्यकता है जो कि शीघ्र ही किया जाना चाहिए. प्रायोगिक तौर पर ब्याज की दर को घटा कर 12 प्रतिशत किया जाना चाहिए.
9. अपीलीय न्यायाधिकरण की स्थापना की प्रक्रिया तेज की जाए। जुलाई 2017 में जीएसटी की शुरुआत के बाद से, करदाताओं को व्याख्यात्मक और तकनीकी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, जिसके परिणामस्वरूप जीएसटी कानूनों के संबंध में लंबी मुकदमेबाजी हुई है या हो सकती है । जीएसटी अपीलीय न्यायाधिकरणों की अनुपस्थिति में, करदाता अक्सर उच्च न्यायालयों से राहत पाने के लिए रिट क्षेत्राधिकार को विकल्प के तौर पर काम में लेते हैं लेकिन सभी करदाताओं के लिए यह संभव नहीं है। लंबित मामलों की संभावना को देखते हुए जीएसटी अपीलीय न्यायाधिकरण (जीएसटीएटी) के गठन का अब काफी इंतजार किया जा रहा है।
10. संशोधनों, परिपत्रों और स्पष्टीकरणों की संख्या बहुत अधिक है और इसने अधिनियम की पूरी योजना को बहुत अधिक जटिल बना दिया है। जीएसटी कानून में बार-बार बदलाव करने के बजाय अब और अधिक स्थिर और व्यवहारिक बनाने के लिए कानून के सभी प्रावधानों पर फिर से विचार करने के लिए एक विशेष विशेषज्ञ समिति नियुक्त की जानी चाहिए। अब 5 साल बीत चुके हैं लेकिन अभी भी जीएसटी कानून में वह स्थिरता नहीं है जो कि भारत में जीएसटी की सफलता और इसे उपयोगकर्ता के अनुकूल बनाने के लिए जरूरी है।
11. पिछले एक साल के दौरान यह देखा गया है कि जीएसटी विभाग द्वारा जारी किए गए नोटिसों की संख्या बढ़ रही है और यह संख्या जीएसटी लागू होने के पहले की अप्रत्यक्ष कर प्रणाली की तुलना में बहुत अधिक है। जब अप्रत्यक्ष कर प्रणाली की कमियों को दूर करने के लिए GST लाया गया था, तब इसकी परिकल्पना नहीं की गई थी क्यों कि सबसे बड़े सुधार के नाम पर GST द्वारा प्रतिस्थापित किया गया था। इन नोटिसों के निस्तारण में मानवीय हस्तक्षेप बहुत अधिक है और यही मुख्य समस्या की और भी संकेत करता है । इस समस्या को कम करने के लिए पूरे सिस्टम और प्रासंगिक प्रक्रियाओं को एक बार फिर से देखने की आवश्यकता है ताकि जीएसटी सरलीकरण की और आगे बढ़ सके.
12. पंजीकरण के लिए एसओपी अर्थात “स्थायी संचालन प्रक्रिया”- Standard Operating Procedure यथाशीघ्र जारी की जानी चाहिए क्योंकि जीएसटी पंजीकरण के लिए मांगे जा रहे दस्तावेजों और पूछताछ हर जगह अलग- अलग है और पंजीयन जारी करने का समय भी हर जगह एक जैसा नहीं है। कई बार पंजीयन में बहुत अधिक वक्त भी लगता है . पंजीकरण के लिए कई बार अतार्किक सवाल और असंबंधित दस्तावेज मांगे जा रहे हैं। इस समस्या को हल करने के लिए एक SOP- मानक ऑपरेटिंग सिस्टम पेश किया जाना चाहिए ताकि यह समस्या हल हो सके.
13. ई- इन्वोइस के मामले में, यदि ई- इन्वोइस की प्रति इस सम्बन्ध में जारी साईट पर राखी नहीं जाती है तो यदि डीलर इस तरह से ई – इन्वोइस की कॉपी रखना भूल जाता है तो उक्त ई- इन्वोइस की प्रति (आईआरएन और क्यूआर कोड के साथ) जनरेशन के 3 दिनों के बाद ई-इनवॉइस पोर्टल साईट प्राप्त करने का कोई विकल्प नहीं है. ऐसे महत्वपूर्ण दस्तावेज़ की पुनर्प्राप्ति पर कोई सीमा नहीं होनी चाहिए जिस पर प्राप्तकर्ता का ITC निर्भर है और इसे हमेशा ही ई-इनवॉइस पोर्टल साईट पर रिकॉर्ड के रूप में उपलब्ध रहनी चाहिए ।
14. पूरे देश में ई-वे बिल प्रावधानों को कुछ अपवादों को छोड़कर मूल्य, दूरी, इंट्रा-सिटी आदि के संदर्भ में नियम सुव्यवस्थित और समान करने की आवश्यकता है, लेकिन वर्तमान में बहुत सारे राज्यों में इसके विभिन्न अपवाद बहुत अधिक हैं। ई-वे बिल से संबंधित चूक, विशेष रूप से वैधता समाप्ति के मामलों, पते के नाम में मामूली गलती आदि में दंड को युक्तिसंगत बनाने की आवश्यकता है, जिसके परिणामस्वरूप राजस्व हानि नहीं होती है। धारा 129 और 130 को कब लागू किया जा सकता है, इसके बारे में विस्तृत दिशा-निर्देश जारी किए जाने की आवश्यकता है। ई-वे की सीमाएं इस उदाहरण की तरह एक ही सामान तय की जा सकती हैं. आइये इसे एक उदाहरण के जरिये समझें : –
क्र.सं. | सप्लाई का प्रकार | रकम |
1. | एक ही शहर के भीतर | रु. 2 लाख |
2. | एक ही राज्य के भीतर | रु. 1 लाख |
3. | अंतर्राज्यीय आपूर्ति रु | रु. 50000.00 |
यहां समस्या यह है कि जब एकल पैन वाले डीलर का एक से अधिक राज्यों में पंजीकरण होता है, तो सभी राज्यों में सीमाएं अलग-अलग होने पर गलतियों की संभावना अधिक होती है। “एक देश एक कर” की अवधारणा को ध्यान में रखते हुए एक सामान दीमा तय की जानी चाहिए .
****
सुधीर हलाखंडी – [email protected]
Sir your pdf file doesn’t work at all, there is font issue there in downloaded PDF file there is no option to send you screen shot then I send it accordingly
ढण्यावाद।
बहुत सामयिक और सही सुझाव है।
I have no website