Sponsored
    Follow Us:
Sponsored

सरकारी बैंकों ने लगभग 90 लाख करोड़ रुपये के ऋण बांट रखे है, जिसमें से 20% यानि 18 लाख करोड़ रुपये डिफाल्ट में है. हालांकि सरकारी आंकड़े इसे लगभग 9 लाख करोड़ रुपये मान रहे हैं.

यह स्थिति तब है जब बैंकों का पुनर्गठन हो चुका है, प्रोफेशनल मैनेजमेंट नियुक्त हो चुका है, दिवाला कानून 2016 से लागू हो चुका है और अब बैड बैंक की स्थापना करीब 2 लाख करोड़ रुपये की पूंजी से स्थापित करने को हरी झंडी मिल चुकी है.

बैड बैंक’ संपत्ति के पुनर्निमाण के लिए बनी कंपनी होती है जो बैंकों से एक तय कीमत पर कर्ज़ खरीद लेती है. इसके बाद वो कर्ज़ लेने के लिए दी गई गारंटी बेचती है, या फिर दिवालिया हुई कंपनी की संपत्ति बेचती है.

इन्हें बेचने से जो पैसा मिलता है उससे कुछ हद तक बैंकों के कर्ज़ की वसूली हो जाती है.

ये पहली बार नहीं है जब भारत बैंक डूबे कर्ज़ की मुश्किल से परेशान हैं और उन्हें ‘बैड बैंक’ की ज़रूरत पड़ी है.

क्या बैड बैंक का गठन या दिवाला कानून में संशोधन सरकारी बैंकों की स्थिति सुधार पाएंगे

दरअसल, बीते दो दशकों में इस तरह की निजी 28 कंपनियां बनी हैं लेकिन कर्ज़ वसूली के मामले में स्थिति बेहतर नहीं हुई है.

इस बार सरकार ने इस काम के लिए दो कंपनियां बनाई हैं- एक कंपनी बैंक का डूबा हुआ कर्ज़ खरीदेगी और ये सरकारी कंपनी होगी.

दूसरी कंपनी आंशिक रूप से निजी होगी और वो कर्ज़ लेने वाले की संपत्ति बेचने की कोशिश करेगी. कमर्शियल बैंकों द्वारा संपत्ति के अपेक्षित मूल्य और संपत्ति बेच कर मिले कुल पैसे के बीच जो फर्क रहेगा वो सरकार चुकाएगी.

18 लाख करोड़ रुपये की ऋण वसूली के लिए 2 लाख करोड़ रुपये देकर बैड बैंक की स्थापना करना पैसे की बरबादी के सिवा कुछ भी नहीं है.

दिवाला कानून के हालात हम देख चुके हैं. इस कानून ने बैंकों की मदद की बजाय कानूनी रूप से डिफाल्टरों की मदद की है. डिफाल्टर 100 रुपये में सिर्फ 20 रुपये चुकाकर दिवाला कानून के अन्तर्गत सभी कानूनी झंझटों से बरी हो रहे हैं.

तीसरा बैंकों का पुनर्गठन, मैनेजमेंट में पारदर्शिता, बदलाव और पेशेवरों की नियुक्ति भी सरकारी हस्तक्षेप के कारण ढकोसला ही साबित हुईं हैं और शायद इसी लिए आरबीआई गवर्नर ने अपने हाल के बयान में बैंकों को जोखिम पहचानने की हिदायत दे डाली.

क्योंकि वे भलीभाँति समझ गए हैं कि बैंकों की रिस्क आंकलन की क्षमता ही उन्हें बचा सकती है और सरकार के हालात अब ऐसे नहीं है कि वे बैंकों में और पूंजी डाल सकें.

2010 से पहले बैंकों में सरकार ने करीब 2 लाख करोड़ रुपये का पूंजी निवेश किया था. मोदी सरकार आने के बाद करीब 1 लाख करोड़ रुपये का पूंजी निवेश हो चुका है और करीब 4 लाख करोड़ रुपये पूंजी निवेश की और जरुरत है- जो कि सरकार के बूते से फिलहाल बाहर लग रहा है.

बैंकिंग क्षेत्र के नियामक भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआइ) ने देश के प्रमुख बैंकों से कहा है कि वे जोखिम के किसी भी उभरते संकेत के प्रति सतर्क रहें।

नियामक ने बैंकों को ऐसे संभावित जोखिम के संकेत मिलते ही उसे टालने के भी सभी उपाय करने को कहा है।

आर्थिक सुधार की गति बनाए रखने के लिए जरूरी है कि बैंक उचित समर्थन बनाए रखें।

इसके साथ-साथ यह भी बेहद जरूरी है कि बैंक जोखिम के किसी भी उभरते संकेत को लेकर बेहद सतर्क रहें और उसे खत्म करने के सभी उपाय करें।

यह सिर्फ उस बैंक विशेष के लिए नहीं, बल्कि पूरे वित्तीय तंत्र की स्थिरता और स्थायित्व के लिए जरूरी है।

आरबीआइ के बयान के अनुसार कर्ज वितरण, विशेष रूप से छोटी व मझोली कंपनियों को लगातार कर्ज की उपलब्धता सुनिश्चित करने के विभिन्न उपायों पर भी चर्चा हुई।

इसके अलावा दबाव वाली संपत्तियों, वसूली में कुशलता और फिनटेक कंपनियों के साथ बैंकों के तालमेल के मुद्दों पर भी आरबीआइ गवर्नर ने बैंकों के साथ विमर्श किया।

कई बार आत्मविश्वास से भरे बैंकरों ने लोन देने के मामले में पूरी सतर्कता नहीं बरती.

बैंक इस उम्मीद से भरे थे कि कंपनी को ताज़ा कर्ज़ देने से वो मुनाफा कमाएंगी और उन्हें उनके पुराने कर्ज़ का ब्याज वापस मिल सकेगा.

भारतीय पूंजीपतियों ने अपनी परियोजनाओं के वित्तपोषण के लिए बैंक के कर्ज़े का इस्तेमाल न केवल डेट बल्कि इक्विटी के रूप में किया.

हालांकि पूंजीवादी व्यवस्था में माना जाता है कि इक्विटी लाना पूंजीपति का काम है न कि बैंक का.

ऐसी स्थिति में भारतीय बैंकों के साथ जुड़ी इस प्रक्रियागत समस्या के निदान के लिए ‘बैड बैंक’ कोई जादू की गोली नहीं साबित होगी.

सरकारी बैंकों को सही मायनों में स्वतंत्र होना पड़ेगा, उन्हें अपने काम करने के तरीकों में बदलाव करना होगा और कर्ज़ देते वक्त बाज़ार की स्थिति और जोखिम को सही से आंकते हुए खुद को बेहतर कर्ज़दाता बनाना होगा.

साथ ही उन्हें ये भी देखना होगा कि वो कितना जोखिम उठाने के लिए तैयार हैं.

रिज़र्व बैंक द्वारा बेहतर नियमन से इस दिशा में मदद मिलेगी. साथ ही कर्ज़ देने के मामले में बैंकों को अधिक पारदर्शिता भी अपनानी होगी.

बैंकों का निजीकरण या मैनेजमेंट में बदलाव या दिवाला कानून में संशोधन या फिर बैड बैंक की स्थापना सिर्फ अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बनाए गए विकसित देशों के शगुफें मात्र है जिनका विकासशील देश में व्याप्त परेशानियों और समस्या से कोई लेना देना नहीं है. हमारी सरकार को भी चाहिए कि अंतर्राष्ट्रीय मापदंड के फेर में देश की वास्तविक स्थिति और हालात का जायजा लिए बिना निर्णय न लें.

लेखक एवं विचारक: सीए अनिल अग्रवाल जबलपुर 9826144965

Sponsored

Tags:

Join Taxguru’s Network for Latest updates on Income Tax, GST, Company Law, Corporate Laws and other related subjects.

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Sponsored
Sponsored
Search Post by Date
July 2024
M T W T F S S
1234567
891011121314
15161718192021
22232425262728
293031