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हमारे देश में संविधान के अनुसार व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के रूप में तीन मुख्य स्तंभ है ,जिसमें न्यायपालिका मुख्य रूप से प्रत्येक नागरिक को न्याय और उसके संरक्षक के रूप में कार्य करती है ।प्रश्न यह है कि क्या भारत के मुख्य न्यायाधीश सेवानिवृत होने के पश्चात वकालत के पेशे से जुड़ सकते हैं, क्योंकि भारत के मुख्य न्यायाधीश का पद भारतीय न्यायपालिका में सबसे सर्वोच्च और सम्मानित पदों में से एक है ।देश में विधि के शासन को सुनिश्चित करने की उनकी जिम्मेदारी होती है, इस पद से जुड़ी व्यापक शक्ति और प्रभाव को देखते हुए यह प्रश्न बनता है कि क्या है अधिवक्ता के रूप में प्रैक्टिस कर सकते हैं ,इस संदर्भ में हम संवैधानिक- विधिक और नैतिक पक्षों की समीक्षा प्रस्तुत कर रहे हैं-

संवैधानिक प्रावधान –

भारत के संविधान के अनुच्छेद 124 (7) में स्पष्ट रूप से सेवानिवृत सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश जिसमें मुख्य न्यायाधीश भी शामिल है को भारत की सीमा के अंदर किसी भी न्यायालय या प्राधिकरण के समक्ष प्रेक्टिस करने से रोकता है। इस अनुच्छेद के अनुसार कोई भी व्यक्ति जिसे सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में पद धारण किया है भारत की सीमा के भीतर किसी भी न्यायालय या प्राधिकरण के समक्ष वकालत या कार्य करने से रोकता है ।

इस अनुच्छेदअनुच्छेद 124 (7) के अनुसार कोई भी व्यक्ति देश की सर्वोच्च अदालत का न्यायाधीश रह चुका है, वह वकालत के क्षेत्र में वापस नहीं लौट सकता है ।इस प्रतिबंध का उद्देश्य न्यायपालिका की पवित्रता और निष्पक्षता को बनाए रखना है ।यदि कोई पूर्व न्यायाधीश किसी भी सर्वोच्च न्यायालय को गलत करने की अनुमति दी जाती है तो उनके पूर्व के निर्णय प्रभाव का न्यायिक प्रक्रिया पर अनुचित प्रभाव पड़ने की संभावना होती है।

प्रतिबंध के आधार

A. न्यायिक गरिमा का संरक्षण

एक न्यायाधीश विशेष कर सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश अत्यंत सम्मान और अधिकार के पद पर होता है सेवा निवृत के बाद सक्रिय कानूनी प्रैक्टिस में शामिल होना इस गरिमा को कम कर सकता है। यह प्रतिबंध इस प्रकार के उच्च स्तर के नैतिक मानकों को बनाए रखने में मदद करता है।

B. हितों के टकराव से बचाव-

यह प्रतिबंध उन स्थितियों को रोकने के लिए है जिसमें पूर्व न्यायाधीश ने जिन मामलों का निपटारा किया है उन पर वह वकील के रूप में उपस्थित होकर पुन प्रकट कर सकते हैं यह न्यायपालिका की निष्पक्षता ईमानदारी को बनाए रखने में मदद करता है और यह सुनिश्चित करता है कि पक्षपात या पक्षधर का कोई आभास ना हो।

C. अनुचित प्रभाव से बचाव-

सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश विशेष कर मुख्य न्यायाधीश को अपने और विशेष आदर विशेष अधिकार प्राप्त जानकारी तक पहुंच रखते हैं उन्हें सेवानिवृत के बाद वकालत करने की अनुमति देने से ऐसी स्थिति उत्पन्न हो सकती है कि इस प्रकार की जानकारी का दुरुपयोग हो सकता है या कम से कम यह आभास हो सकता है कि ऐसा हो सकता है।

 नैतिकता का आधार-

किसी मुख्य न्यायाधीश के सेवानिवृत होने के पश्चात नैतिकता भी यही कहती है कि वह विधि में प्रैक्टिस ना करें, क्योंकि न्यायपालिका संविधान के मुख्य स्तंभ में से एक है तथा इसकी विशेषता उसके सदस्यों की वास्तविक और प्रत्यक्ष निष्पक्षता पर निर्भर करती है । सेवानिवृत के बाद प्रैक्टिस पर प्रतिबंध यह सुनिश्चित करता है कि न्यायाधीश अपने कार्यकाल के दौरान भविष्य में वकील के रूप में अपने करियर की संभावनाओं को ध्यान में रखते हुए निर्णय ले, इसके अलावा यह अति महत्वपूर्ण है कि सेवानिवृत न्यायाधीश विभिन्न अर्ध न्यायिक और प्रशासनिक उपायों में भूमिकाएं निभा सकते हैं ऐसी भूमिकाओं से उनके पूर्व न्याय का आचरण पर कोई समझौता नहीं होना चाहिए। इस बात का बहस हो रही है कि क्या कुछ पद स्वीकार करने से पक्षपात के आरोप लगा सकते हैं या न्यायाधीश के पूर्ण निर्णय से समझौता हो सकता है।

आलोचना और विवादों का संबंध-

सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के सेवानिवृत के बाद उनकी भूमिकाओं पर भारत में यह बहस का विषय है कि आलोचकों का तर्क है कि विभिन्न आयोगों और न्यायाधिकरण में न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति के बाद की गई नियुक्तियों को उनके कार्यकाल के दौरान दिए गए अनुकूल निर्णय के लिए पुरस्कार के रूप में देखा जा सकता है ।यह धारणा भले ही वास्तविकता पर आधारित ना हो लेकिन न्यायपालिका की छवि को नुकसान पहुंचा सकता है ।जिसके एक दो उदाहरण से इन आलोचना को बल मिलता है जिसमें मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई को सेवा निवृत के पश्चात राज्यसभा में नामांकित किया गया ।इसी प्रकार पूर्व मुख्य न्यायाधीश पी सदाशिवम को केरल

 का राज्यपाल नियुक्त किया गया।पूर्व जस्टिस सैयद अब्दुल नजीर( राम जन्मभूमि पर निर्णय देने वाले) को आंध्र प्रदेश का राज्यपाल बनाया गया हैI

सेवानिवृत होने के पश्चात सेवा के अन्य विकल्प –

A. सार्वजनिक सेवा

कुछ सेवानिवृत न्यायाधीश राज्यपाल या विभिन्न सरकारी समितियां और आयोग के प्रमुख जैसे संवैधानिक/ संवेदिक पदों पर नियुक्त होते हैं।

B. शैक्षिक और कानूनी शिक्षा

कई सेवानिवृत  न्यायाधीश विधि विश्वविद्यालय में शिक्षक, व्याख्यान देना या विधि मुद्दों पर लेखन के माध्यम से विधि शिक्षा के क्षेत्र में योगदान देते हैं जिससे वह अपने ज्ञान और अनुभव को अगली पीढ़ी के विधि पेशेवरों को के साथ साझा करते हैं।

C. आयोग या न्यायाधिकरण के अध्यक्ष या सदस्य के रूपमें

सेवानिवृत न्यायाधीश अक्सर भारत के विधि आयोग ,राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग या राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण जैसे विभिन्न आयोग और न्यायाधिकरण के अध्यक्ष या सदस्य के रूप में कार्य करते हैं। इन भूमिकाओं में उनका अनुभव और विशेषज्ञ का मूल योगदान होता है।

D. मध्यस्थता और सुलह सेवा

सेवा निवृत न्यायाधीश अक्सर विभिन्न विवादों में मध्यस्थ या सुलाकर्ता के रूप में कार्य करते हैं उनकी कानूनी विशेषता और जटिल कानूनी मामलों की समझ के कारण उन्हे  मध्यस्थ के रूप में नियुक्त किया जाता है ।जो उन्हें कानूनी क्षेत्र में योगदान जारी रखने का अवसर प्रदान करता है।

निष्कर्ष

सेवानिवृत्त सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों, जिसमें भारत के मुख्य न्यायाधीश भी शामिल हैं, द्वारा वकालत करने पर प्रतिबंध न्यायपालिका की स्वतंत्रता और निष्पक्षता को वह बनाए रखने का प्रावधान एक अच्छा प्रावधान है। यह हितों के टकराव से बचने में मदद करता है और न्यायिक पद की गरिमा को बनाए रखता है , सेवानिवृत न्यायाधीश विभिन्न क्षमताओं में कानूनी और शारीरिक क्षेत्र में योगदान दे सकते हैं, उन्हें उच्च नैतिक मानकों के साथ रहना चाहिए जो उनसे अपेक्षित है ।जैसे न्यायपालिका भारत में विधि के शासन को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है, उसके साथ आवश्यक है कि उसके सदस्यों के आचरण उनके कार्यकाल के दौरान उसके बाद के नियम और प्रावधान मजबूत और पारदर्शी बने रहे जिससे सुनिश्चित होता है कि न्यायपालिका भारत के नागरिकों की नजर में एक निष्पक्ष निर्णायक के रूप में अपने विश्वसनीयता बनाए रखें।

यह लेखक के निजी विचार है।

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