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बजट पेश करते हुए भी और करने के बाद भी वित्त मंत्री ने बजट 22 को अगले 25 सालों का देश का ब्ल्यू प्रिंट बताते हुए कहा कि पूंजीगत व्यय बढ़ाकर सरकार ने अर्थव्यवस्था उत्थान का रास्ता खोल दिया है और यह एक क्रांतिकारी और विकासोन्मुखी बजट है.

हम अपेक्षा करते हैं, ऐसा ही हो लेकिन क्या पूंजीगत व्यय बढ़ाना अर्थव्यवस्था की वृद्धि सुनिश्चित करता है?

अर्थव्यवस्था को जरुरत है मांग बढ़ाने की. मांग बढ़ाने के लिए या तो आम जनता के हाथ में पैसे दिए जावे या फिर पूंजीगत व्यय बढ़ाकर रोजगार और विकास के रूप में पैसे दिए जावे.

जहाँ पहला कदम तुरंत मांग बढ़ाते हुए जनता को राहत प्रदान करता है चाहे वो कदम कर दायरे को बढ़ाना हो, सब्सिडी देने के रूप में हो या फिर खर्च के छूट के रूप में हो. लेकिन इस कदम का असर छोटी अवधि तक ही रहता है पर अल्पकालिक राहत प्रदान करता है.

वहीं दूसरी ओर पूंजीगत व्यय बढ़ाकर दीर्घकालिक राहत प्रदान करने की कोशिश की जाती है जिसका असर लंबे समय तक रहता है लेकिन इसके जमीनी स्तर पर फलिभूत होने में कुछ या काफी समय भी लग सकता है और यह निर्भर करता है सरकारी समझदारी और क्रियान्वयन के तरीके पर. साफ है यदि इन पूंजीगत व्यय का क्रियान्वयन सही तरीके से नहीं हुआ तो मांग बढ़ना तो दूर, हम पर 25 सालों का कर्ज और चढ़ जाएगा.

सरकारी सांख्यिकी और योजना क्रियान्वयन मंत्रालय के जनवरी 2018 के आंकड़े के अनुसार देश में चल रही 345 योजनाओं में लागत 219000 करोड़ रुपये से बढ़ चुकी है और 354 योजनाओं का क्रियान्वयन 45 महीने देरी से चल रहा है. समय और लागत में बढ़ोत्तरी मांग बढ़ाना तो दूर, हमारे संसाधनों की बर्बादी से कम नहीं और क्या प्रमुख कारण है इस पर भी नजर डालना जरुरी है:

1. सही प्लानिंग की कमी

2. हितधारकों के बीच खराब सामंजस्य और समन्वय

3. रिस्क कारकों को सही ढंग से चिन्हित न कर पाना

4. सरकारी नीतियों और कानूनों में अकस्मात बदलाव जिस कारण से काम करने वाली प्राईवेट कंपनियों के रिटर्न में गिरावट

5. एशियन डेवलपमेंट द्वारा बताया जाना कि भारतीय ट्रांसपोर्ट उद्योग में योजना क्रियान्वयन की लागत चीन, बांग्लादेश और श्रीलंका से भी ज्यादा होना

6. डिटेक्टिव और गलत आंकड़ों पर आधारित प्रोजेक्ट रिपोर्ट जो आने वाले समय में योजना की उपयोगिता और लागत का गलत अनुमान देती है जिसके कारण समय और लागत बढ़ जाती है

हम पाएंगे कि ऊपर दिए गए कारकों के कारण पिछले 10 सालों में घोषित की गई, कई सरकारी योजनाएँ अधर में है, चाहे वो स्मार्ट सिटी हो या फिर मैनेजमेंट और मेडिकल कॉलेज खोलने की हो या फिर स्वच्छ भारत के तहत टायलेट बनाने का हो या फिर आयुषमान योजना हो या आवास योजना या ही फिर बुलेट ट्रेन या अन्य ट्रेन शुरू करने की हो.

तो क्या यह जरूरी नहीं कि सरकार पिछले सालों में किए गए पूंजीगत व्यय और योजना क्रियान्वयन के संबंध में बजट में जानकारी दे और यह बताए कि खर्च की उपयोगिता और वस्तु स्थिति क्या है. सिर्फ नई नई घोषणाएं करना ही काफी नहीं होता, सरकार को सुनिश्चित करना होगा और बताना होगा कि क्या कदम होंगे जो इस बात पर नजर रखेंगे और आडिट करेंगे कि सरकारी योजनाओं का क्रियान्वयन और खर्च सही समय और लागत पर किए जा रहे हैं कि नहीं.

योजना प्रबंधन में सरकार को बजट द्वारा यह बताना चाहिए कि सभी हितधारकों का पूंजीगत व्यय में समन्वय कैसे स्थापित होगा फिर चाहे वो प्राईवेट निवेशक हो, राज्य सरकारें हो, क्रियान्वयन एजेंसी हो, नौकरशाही हो या योजना से जुड़ी आम जनता हो.

इस बार सरकार का पुरा फोकस ट्रांसपोर्ट क्षेत्र में है, गति शक्ति योजना पर है – तो क्या यह जरुरी नहीं कि सरकार बजट में इन कदमों को भी प्रस्तावित करें जो इस बात को सुनिश्चित करेंगे कि सही समय और बताई लागत के अंदर योजनाओं का क्रियान्वयन हो और यदि देरी होती है तो इसके लिए कोई भी हो चाहे वो सत्तारुढ़ दल ही हो- पेनल्टी भरनी होगी. देश गलत तरीके से की गई घोषणाएं या क्रियान्वयन की कमी को स्वीकार नहीं करेगा.

तभी सही मायनों में पूंजीगत व्यय देश की अर्थव्यवस्था का उत्थान कर पाएंगे, नहीं तो आम जनता को न अल्पकालिक राहत और न ही दीर्घकालिक राहत- बस मिलेगी तो घोषणाएं और सपने.

*लेखक एवं विचारक: सीए अनिल अग्रवाल जबलपुर 9826144965*

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