राज्य बार काउंसिलों द्वारा ली जाने वाली अत्यधिक नामांकन फीस पेशे, सम्मान और समानता के अधिकार का उल्लंघन है: सुप्रीम कोर्ट बार काउंसिल नामांकन के लिए अधिवक्ता अधिनियम की धारा 24 के तहत निर्दिष्ट शुल्क से अधिक राशि एकत्र नहीं कर सकते: सुप्रीम कोर्ट न्यायालय ने स्पष्ट किया कि नामांकन के समय बार काउंसिल द्वारा एकत्र की गई सभी राशि ‘नामांकन शुल्क’ के रूप में मानी जाएगी।
सर्वोच्च न्यायालय ने दिनांक 30 .07.2024 एक निर्णय गौरव कुमार बनाम भारत संघ WP(C) संख्या 352/2023 और संबंधित मामले में कहा कि सामान्य वर्ग के वकीलों के लिए नामांकन शुल्क 750 रुपये से अधिक नहीं हो सकता, जबकि अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति वर्ग के वकीलों के लिए नामांकन शुल्क 125 रुपये से अधिक नहीं हो सकता।
न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा कि राज्य बार काउंसिल “विविध शुल्क”, “स्टाम्प ड्यूटी” या अन्य शुल्कों के शीर्षक के तहत ऊपर निर्दिष्ट राशि से अधिक कोई राशि नहीं ले सकते। न्यायालय ने निर्दिष्ट किया कि नामांकन के लिए पूर्व शर्त के रूप में बार काउंसिल द्वारा लगाए गए सभी शुल्क, चाहे किसी भी नाम से हों, ‘नामांकन शुल्क’ के रूप में योग्य होंगे। इसलिए बार काउंसिल द्वारा सत्यापन शुल्क, भवन निधि, परोपकारी निधि आदि के नाम पर एकत्र किया गया धन, जिसे नामांकन के समय एकमुश्त भुगतान कहा जाता है, नामांकन शुल्क होगा।
न्यायालय ने कहा, “इस प्रकार, नामांकन के समय उम्मीदवार से एकत्र किए गए सभी विविध शुल्क अनिवार्य रूप से नामांकन की प्रक्रिया के लिए एक पूर्व शर्त के रूप में काम करते हैं। धारा 24 (1) विशेष रूप से उन पूर्व शर्तों को निर्धारित करती है जिनके अधीन एक वकील को राज्य रोल पर नामांकित किया जा सकता है। चूंकि धारा 24 (1) (F) स्टेट बार काउंसिल (SBC) द्वारा नामांकन शुल्क के रूप में ली जाने वाली राशि को निर्दिष्ट करती है।इसलिए SBC और BCI नामांकन के लिए पूर्व शर्त के रूप में निर्धारित नामांकन शुल्क के अलावा अन्य शुल्क के भुगतान की मांग नहीं कर सकते हैं।
“यह स्पष्ट किया गया। कि नामांकन के चरण में केवल वही शुल्क स्वीकार्य हैं ।जो अधिवक्ता अधिनियम की धारा 24(1)(F) के तहत निर्धारित हैं। प्रवेश के समय उम्मीदवारों से लिए जाने वाले अन्य सभी विविध शुल्क, जिनमें आवेदन पत्र शुल्क, प्रसंस्करण शुल्क, डाक शुल्क, पुलिस सत्यापन शुल्क, आईडी कार्ड शुल्क, प्रशासनिक शुल्क, फोटोग्राफ शुल्क आदि शामिल हैं। नामांकन शुल्क के हिस्से के रूप में माने जाएंगे। इन या किसी भी समान शीर्षकों के तहत लिया जाने वाला शुल्क संचयी रूप से धारा 24(1)(F) में निर्धारित नामांकन शुल्क से अधिक नहीं हो सकता है।”
अधिवक्ता अधिनियम 1961 की धारा 24(1)(F) के तहत सामान्य वर्ग के अधिवक्ताओं के लिए राज्य बार काउंसिल को देय नामांकन शुल्क 600/- रुपये और बार काउंसिल ऑफ इंडिया को 150/- रुपये निर्धारित किया गया है। एससी/एसटी वर्ग के अधिवक्ताओं के लिए यह राशि क्रमशः 100 रुपये और 25 रुपये है। विभिन्न बार काउंसिल द्वारा वसूले जाने वाले राज्यवार शुल्क का विस्तृत चार्ट यहाँ देखा जा सकता है। कुछ राज्यों में नामांकन शुल्क 42,000 रुपये तक है।
न्यायालय ने कहा कि चूंकि संसद ने नामांकन शुल्क निर्दिष्ट किया है, इसलिए बार काउंसिल इसका उल्लंघन नहीं कर सकती। धारा 24(1)(F) एक राजकोषीय विनियामक प्रावधान है। इसलिए इसकी व्याख्या सख्ती से की जानी चाहिए और चूंकि संसद ने अपनी संप्रभु शक्ति के प्रयोग से यह राशि निर्धारित की है। इसलिए राज्य बार काउंसिल या बार काउंसिल ऑफ इंडिया, कानून के तहत प्रतिनिधि होने के नाते, संसद द्वारा निर्धारित राजकोषीय नीति में बदलाव नहीं कर सकती।
नामांकन के लिए अतिरिक्त शुल्क निर्धारित करके, राज्य बार काउंसिलों ने नामांकन के लिए अतिरिक्त मूलभूत दायित्व बना दिए हैं, जो अधिवक्ता अधिनियम के किसी भी प्रावधान में नहीं आते हैं।
भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ द्वारा लिखे गए फैसले में कहा गया है कि नामांकन के लिए पूर्व शर्त के रूप में अत्यधिक शुल्क वसूलना, विशेष रूप से वंचित वर्गों से संबंधित लोगों के लिए, उनके पेशे को आगे बढ़ाने में बाधाएँ पैदा करता है। न्यायालय ने कहा कि चूंकि नामांकन के समय उम्मीदवारों के पास बहुत कम साधन होते है।इसलिए उन्हें बार काउंसिल द्वारा की गई ,अत्यधिक माँगों को पूरा करने के लिए मजबूर होना पड़ता है।
साथ ही, न्यायालय ने घोषणा की कि निर्णय का प्रभाव केवल भावी प्रभाव पर होगा, अर्थात बार काउंसिलों को अब तक वैधानिक राशि से अधिक एकत्र किए गए नामांकन शुल्क को वापस करने की आवश्यकता नहीं है। जैसा है वैसा रहेगा।
न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया। कि बार काउंसिल वकीलों के लिए किए गए कार्य के लिए अन्य शुल्क लगाने के लिए स्वतंत्र है, लेकिन उन्हें नामांकन शुल्क के रूप में नहीं लगाया जा सकता।
“एक बार अधिवक्ताओं को राज्य की सूची में नामांकित कर लिया जाता है। तो बार काउंसिल अधिवक्ता अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार अधिवक्ताओं को प्रदान की जाने वाली सेवाओं के लिए शुल्क ले सकती है। स्टेट बार काउंसिल (SBC)और BCI को शुल्क वसूलने का एक उचित तरीका तैयार करना होगा। जो न केवल नामांकन करने के इच्छुक विधि स्नातकों के लिए बल्कि राज्य की सूची में पहले से नामांकित अधिवक्ताओं के लिए भी उचित और न्यायसंगत हो। ऐसे कई उचित तरीके हैं। जिनके द्वारा SBC और BCI अधिवक्ता के व्यवसाय के बाद के चरणों में धन एकत्र कर सकते हैं और पहले से ही कर रहे हैं। स्नातक को जीविकोपार्जन का उचित अवसर दिए जाने से पहले लिए जाने वाले नामांकन शुल्क के विपरीत, आय के ऐसे स्रोत सीधे अधिवक्ताओं के व्यवसाय से संबंधित होते हैं।”
सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली बेंच जिसमें जस्टिस जेबी पारदीवाला और मनोज मिश्रा शामिल थे, विभिन्न राज्य बार काउंसिल द्वारा लगाए जा रहे अलग-अलग नामांकन शुल्क को अत्यधिक बताते हुए चुनौती देने वाली याचिकाओं पर फैसला कर रही थी । इस मुद्दे की मुख्य याचिका का शीर्षक गौरव कुमार बनाम भारत संघ है।
याचिकाओं के समूह ने एक सामान्य प्रश्न उठाया कि क्या अत्यधिक नामांकन शुल्क वसूलना अधिवक्ता अधिनियम 1961 की धारा 24(1) का उल्लंघन है। याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया है कि यह सुनिश्चित करना भारतीय बार काउंसिल (बीसीआई) का कर्तव्य है कि अत्यधिक नामांकन शुल्क न लिया जाए।
उल्लेखनीय है।कि 2023 में पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने अखिल भारतीय बार परीक्षा की वैधता को बरकरार रखते हुए बार काउंसिल ऑफ इंडिया से यह सुनिश्चित करने को भी कहा था कि नामांकन शुल्क “दमनकारी” न हो जाए।
न्यायमूर्ति एस.के. कौल की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ ने अपने निर्णय (बार काउंसिल ऑफ इंडिया बनाम बोनी फोई लॉ कॉलेज एवं अन्य) में कहा था, “हमारे पास इस तर्क से उत्पन्न एक चेतावनी भी है। कि विभिन्न राज्य बार काउंसिल नामांकन के लिए अलग-अलग शुल्क ले रहे हैं। यह एक ऐसी बात है जिस पर बार काउंसिल ऑफ इंडिया को ध्यान देने की आवश्यकता है, जो यह सुनिश्चित करने के लिए शक्तियों से वंचित नहीं है कि एक समान पैटर्न का पालन किया जाए और बार में शामिल होने वाले युवा छात्रों की दहलीज पर शुल्क दमनकारी न हो जाए।
इसने कहा कि अधिवक्ता अधिनियम की धारा 30 उन वकीलों को पूरे भारत में वकालत करने की अनुमति देती है, जिनका नाम राज्य रोल में दर्ज है। संविधान के अनुच्छेद 19(1)(जी) में प्रावधान है कि भारत के सभी नागरिकों को कोई भी पेशा अपनाने या कोई व्यवसाय, व्यापार या कारोबार करने का अधिकार है।
शीर्ष अदालत ने कहा, ” इस प्रकार, कानून का अभ्यास करने का अधिकार न केवल एक वैधानिक अधिकार है, बल्कि अनुच्छेद 19(1)(जी) के तहत संरक्षित एक मौलिक अधिकार भी है।
रिट पिटीशन के क्रम संख्या 104 में हालांकि, कानून का अभ्यास करने के नागरिकों के अधिकार को विनियमित किया जा सकता है और यह निरपेक्ष नहीं है।
रिट पिटीशन के क्रम संख्या 105 में अधिवक्ता अधिनियम के तहत, केवल उन वकीलों को भारत के पूरे क्षेत्र में अभ्यास करने का अधिकार है, जिन्हें राज्य रोल पर भर्ती किया गया है। “
इस संदर्भ में न्यायालय ने यह भी कहा कि अत्यधिक नामांकन शुल्क मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है, विशेषकर हाशिए पर पड़े वर्गों के लोगों के।
“नामांकन के समय युवा विधि स्नातकों पर अत्यधिक वित्तीय बोझ डालने से आर्थिक कठिनाइयाँ होती हैं, विशेष रूप से समाज के हाशिए पर पड़े और आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्गों के लोगों के लिए। इसलिए, SBC द्वारा लिया जाने वाला वर्तमान नामांकन शुल्क अनुचित है और अनुच्छेद 19(1)(जी) का उल्लंघन करता है।”
न्यायालय ने केरल, तमिलनाडु, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश सहित विभिन्न राज्य बार काउंसिलों द्वारा निर्धारित उच्च नामांकन शुल्क से संबंधित मामले में यह फैसला सुनाया।
केरल के छात्रों के एक समूह का प्रतिनिधित्व वरिष्ठ अधिवक्ता राघेंत बसंत ने किया। इस मामले में वरिष्ठ अधिवक्ता आर बालासुब्रमण्यम, मनन कुमार मिश्रा, एस प्रभाकरन, अपूर्व कुमार शर्मा, सी नागेश्वर राव, वी गिरी और अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल केएम नटराज भी पेश हुए।
निष्कर्ष
उपरोक्त रिट पिटीशन में सुप्रीम कोर्ट आफ इंडिया ने स्पष्ट कर दिया है ।कि संसद द्वारा निर्मित अधिवक्ता अधिनियम 1961 की धारा 24(1)( F) के अंतर्गत संसद द्वारा निर्धारित नामांकन शुल्क से अधिक वसूली नहीं की जा सकती ।क्योंकि संसद द्वारा निर्मित विधि में बार काउंसिल आफ इंडिया या स्टेट बर काउंसिल को इस प्रकार का संशोधन करने का अधिकार नहीं है। यह संशोधन केवल संसद द्वारा पारित किया जा सकता है ।इस निर्णय से युवा अधिवक्ताओं को काफी लाभ होगा। क्योंकि प्रारंभिक स्थिति में उनके पास संसाधनों की कमी होती है ।जिसके कारण वह रजिस्ट्रेशन कराने में देरी करते हैं ।इसी को ध्यान में रखते हुए यह निर्णय युवाधिवक्ताओं के लिए एक प्रेरणा स्रोत निर्णय साबित होगा ।
यह लेखक के निजी विचार हैं। इसका विधि में प्रयोग अनुचित है।