विकासशील देश हमेशा से पश्चिम देशों और चीन के कर्ज के बोझ तले दबे होते हैं और इसका फायदा अमरीका, चीन और युरोपीय देश इन विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था पर कब्जा कर, उनकी राजनीतिक और सामाजिक नीति पर प्रभाव डाल अपनी उंगलियों पर नचाते है और ये विकासशील देश न कर्ज के जाल से उबर पाते हैं और न ही कभी आत्मनिर्भर बन पाते हैं.
कर्ज के चक्र में फंसकर अपनी दुर्गति कराने का हाल का ही उदाहरण श्रीलंका है. सबसे ज्यादा कर्ज चीन से लिया हुआ होने के कारण श्रीलंका की नीति निर्धारण चीन के हाथ में होने के कारण भारत के लिए खतरा और दबाव दोनों बढ़ गए हैं. चीन ने पहले ही पाकिस्तान, नेपाल और बांग्लादेश को अपने कर्ज के जाल में फांसकर भारत को चारों तरफ से घेर लिया है.
आज हमारी विदेश नीति की सबसे बड़ी दिक्कत यही है कि न हम अपने पड़ोसियों के हो पाए और न ही पश्चिमी देशों के. सिर्फ न्यूट्रल ही रह सकते हैं और किसी भी देश के पक्ष या विपक्ष में खड़े होना अभी हमारे बस में नहीं है. चाहे विदेशी हमारी लीडरशिप की प्रशंसा करें लेकिन वो सिर्फ दिखावटी और अपने मतलब की होती है. सच्चाई तो यह है कि हम भी चीन और विदेशी कर्ज के जाल में फंसते जा रहे हैं. लोकलुभावन नीतियों को लागू करके चुनाव जीतने की अपनी मजबूरियों के कारण विकासशील देश कर्ज लेकर इन देशों के जाल में फंसते जा रहे हैं.
श्रीलंका की दुर्दशा को समझे, तो ये कारक हैं:
- आपको 1998 में दक्षिणी पूर्वी एशिया की आर्थिक दुर्गति ध्यान होगी, जिसमें इंडोनेशिया पूरी तरह बरबाद हो गया था और आज वह पश्चिमी देशों की कठपुतली की तरह काम कर रहा है.
- मंहगी दरों पर कर्ज लेकर उसका उपयोग अच्छे और उत्पादक प्रोजेक्ट पर न लगाकर फिजूल की योजनाओं में बर्बाद करना, श्रीलंका के आर्थिक खस्ताहाल का मुख्य कारण है.
- विदेशी मुद्रा भंडार खत्म हो जाना, आयात के लिए पैसे न होना, कर्ज बढते जाना और सरकारी राजस्व गिरना क्योंकि सरकार लोकलुभावन नीति बनाकर पैसे लुटवाती रही, व्यापार खड़े न कर पाना, लोगों को रोजगार न दे पाना, फ्री पैसे और खाना बांटना, आदि से आज श्रीलंका के ये हालात हो गए हैं कि सरकार के पास अब बांटने को कुछ नहीं बचा.
- और तो और अब कोई देश या बैंक कर्ज देने तक तैयार नहीं. चीन अपनी पैठ जमाता जा रहा है और इन्हीं सामरिक जरूरतों के कारण भारत को भी न चाहकर श्रीलंका की मदद करना मजबूरी है.
- हमारे पड़ोसियों को एक दूसरे से लड़वा कर कभी एशियन देशों को पनपने नहीं दिया गया. विकसित देशों ने सिर्फ और सिर्फ हमारी अर्थव्यवस्था, लोगों और सरकारों का उपयोग किया है. रशिया युक्रेन युद्ध भी इसी बात का उदाहरण है.
- विकासशील देश अपने वर्चस्व को बढ़ाने पश्चिम देशों से दोस्ती करते हैं और अपने पड़ोसियों से लड़ते हैं. वे जानबूझकर चुनाव जीतने और अपनी सरकार चलाने पर ध्यान देते हैं. देश और एशिया महाद्वीप को शक्तिशाली बनाने की ओर ध्यान नही जाता और यही पश्चिमी देश भी चाहते हैं.
- श्रीलंका की दुर्दशा इस बात को इंगित करती है कि कर्ज के जाल में फंसने की बजाय पूरे क्षेत्र के विकास पर ध्यान देना होगा ताकि नाटो की तरह हम एशिया को एक महाशक्ति बना सकें.
हर विकासशील देश को लोकलुभावन नीतियों से बचना होगा, फ्री बांटना बंद करना होगा, अपने आपको ज्यादा उत्पादक और आत्मनिर्भर बनाना होगा, आधारभूत ढांचे पर जोर देना होगा, टेक्नोलॉजी और शिक्षा आधारित विकास माडल पर ध्यान देना होगा तभी हम अपने और अन्य विकासशील देशों को कर्ज की दुर्दशा से बचा सकेंगे और इसके लिए वक्त है कि हम सभी पड़ोसी आपस के मनभेद और मतभेद को दूर करते हुए विकास पर ध्यान दें एवं पश्चिमी देशों पर निर्भरता कम हो सकें.
लेखक एवं विचारक: सीए अनिल अग्रवाल जबलपुर 9826144965