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1 फरवरी को केन्द्र सरकार का 2022 का बजट आने वाला है और सभी क्षेत्र अपनी अपनी उम्मीदें व्यक्त कर रहे हैं और राहत का इंतजार कर रहे हैं.

लेकिन तथ्य तो ये है कि जो अर्थव्यवस्था के हालात हैं और सरकारी राजस्व की स्थिति है, वह दयनीय है और ऐसे में सरकार टैक्स कम कर पाऐगी या मंहगाई कम कर पाऐगी या क्षेत्रों के बजटीय आवंटन बढ़ा पाऐगी, उम्मीद करना बेमानी होगा.

एक आम आदमी की नजर से देखे तो मंहगाई कम हो या नहीं हो, पेट्रोल डीजल के दाम कम हो या न हो लेकिन स्वास्थ्य क्षेत्र में राहत की एकमात्र उम्मीद वो इस बजट से रखता है.

नीति आयोग और बीमा नियामक की 2021 की वार्षिक रिपोर्ट में भारत में स्वास्थ्य क्षेत्र की स्थिति को लेकर कुछ तथ्यात्मक पहलू है जो चौकानें वाले है:

1. भारत का स्वास्थ्य क्षेत्र में खर्च अपने समकक्ष देशों के मुकाबले सबसे कम है- जहाँ दक्षिण अफ्रीका और ब्राजील में स्वास्थ्य क्षेत्र में जीडीपी का 6% खर्च होता है, रूस में 5%, चीन में 2.9%, वही भारत में मात्र 1.6% है.

2. भारत में एक आम आदमी स्वास्थ्य दवाई और अस्पताल पर 65% खर्च अपनी जेब से करता है, जिस कारण से उसकी आमदनी का अहम हिस्सा सिर्फ स्वास्थ्य पर खर्च होता है.

3. देश की 75% ग्रामीण और शहरी जनता का विश्वास निजी अस्पतालों पर ज्यादा है, उनका ये मानना है कि प्राइवेट अस्पतालों में सरकारी अस्पतालों के मुकाबले ज्यादा अच्छा इलाज होता है.

4. महामारी की दूसरी लहर में प्राइवेट अस्पतालों ने 3 गुना अधिक चार्ज मरीजों से वसूला. हेल्थ इंश्योरेंस कंपनियों ने 2021 में प्रति मरीज 100000/- रुपये निजी अस्पतालों को दिया जबकि 2020 में ये आंकड़ा 37000/- रुपये था. साफ है निजी अस्पतालों ने जमकर चांदी काटी.

5. हेल्थ इंश्योरेंस कंपनियां भी पीछे नहीं थी. महामारी के कारण देश की 70% जनता (40% से बढ़कर) हेल्थ इंश्योरेंस के दायरे में आई, जिससे सालाना हेल्थ इंश्योरेंस प्रीमियम 2021 में लगभग 50000 करोड़ रुपये हो गया जो कि पिछले वर्ष 30000 करोड़ रुपये था.

Budget 2022 should be effective steps for the health sector

6. क्लेम सेटलमेंट में भी इंश्योरेंस कंपनियों ने कंजूसी दिखाई. जहाँ 2020 में 30000 करोड़ रुपये के प्रीमियम कलेक्शन के मुकाबले 24000 करोड़ रुपये का सेटलमेंट हुआ, वही 2021 में 50000 करोड़ रुपये कलेक्शन के मुकाबले मात्र 30000 करोड़ रुपये का सेटलमेंट किया गया. साफ है हेल्थ इंश्योरेंस कंपनियों ने भी खूब कमाया.

7. सरकारी इंश्योरेंस पीएमजेकेवाई प्रधानमंत्री जीवन बीमा रही महामारी के समय गैर कारगर और नहीं कर पाई आम जनता की मदद. दिसम्बर 21 तक मात्र 4 राज्यों में स्थित 5 लाख लोगों की ही मदद कर पाई और ये 4 राज्य है- कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र और केरल. उप्र जैसे बड़े राज्य में इस स्कीम के तहत मात्र 900 लोगों को ही मदद मिल पाई.

उपरोक्त तथ्यों से साफ है कि इतनी सरकारी योजनाओं के होने के बाद भी आम आदमी अच्छे, सस्ते और सुलभ इलाज के लिए तड़प रहा है और उसकी आमदनी का मुख्य हिस्सा स्वास्थ्य पर खर्च हो जाता है. निजी अस्पतालों, पेथोलाजी, डाइगनोस्टिक सेंटर पर आज भी कोई नियंत्रण नहीं है.

आप बड़ा से बड़ा अस्पताल बनाए, पांच सितारा अस्पताल बनाए, आप बड़े से बड़े डाक्टर हो, सफल डाक्टर हो, लेकिन स्वास्थ्य क्षेत्र में कितनी फीस लगेगी, कितने रेट लगेंगे- यह पूरे देश में एक समान रूप से लागू होना चाहिए.

स्वास्थ्य जरूरत का क्षेत्र होना चाहिए न कि विकल्पों का, मदद का क्षेत्र होना चाहिए न कि निवेश का, मानवता का क्षेत्र होना चाहिए न कि व्यापार का.

हेल्थकेयर में भारत का वर्तमान खर्च जीडीपी का 1.2% से 1.6% है, जो अन्य प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में बहुत कम है. इसलिए, गैर-संचारी और संक्रामक रोगों में वृद्धि की दोहरी चुनौती को दूर करने के लिए, यह आवश्यक है कि स्वास्थ्य सेवा पर सार्वजनिक खर्च अगले 7-10 वर्षों में जीडीपी के 4.5% तक बढ़ाया जाए।

लेखक एवं विचारक: सीए अनिल अग्रवाल जबलपुर 9826144965

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