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माननीय सुप्रीम कोर्ट ने इनकम टैक्स की संशोधित धारा ४५(४) को संवैधानिक करार देते हुए फर्मों द्वारा प्रापर्टी डील के समय कुछ पार्टनर रिटायर कर नए पार्टनर लाने की प्रक्रिया को प्रापर्टी सेल मानते हुए उस पर विभाग द्वारा टैक्स लगाए जाने को वाजिब ठहराया है और इस प्रकार हाईकोर्ट और ट्रिब्यूनल के निर्णय को पलट दिया.

अब सभी फर्मों में किसी भी प्रकार का फेरबदल टैक्स दायरे में होगा खासकर वह सारी फर्में जिनके नाम पर बड़ी बड़ी प्रापर्टी डील की जाती है और पार्टनर बदल बदल कर प्रापर्टी के अधिकार बिना टैक्स दिए हस्तांतरित होते रहते हैं.

माननीय उच्च न्यायालय ने हाल में ही सीआईटी बनाम मनसुख डाइंग एंड प्रिंटिंग मिल्स २०२२ लाइव ला (एससी) ९९१ में यह निर्णय पारित किया जिसका असर पार्टनरशिप फर्मों के गठन और लेनदेन पर दीर्घ कालिक होगा.

माननीय उच्च न्यायालय के इस फैसले के बाद विभाग ने पुराने केस भी खंगालने शुरू कर दिए हैं जिसमें फर्मों के माध्यम से टैक्स चोरी होती थी. अब इसमें सबसे मुख्य बात है कि यह प्रक्रिया पिछले २ दशकों से चल रही है और खुद विभाग, हाईकोर्ट और ट्रिब्यूनल द्वारा मान्य किया गया था, ऐसे में माननीय उच्च न्यायालय के निर्णय को आगे से लागू करना तो समझ आता है लेकिन पिछले सालों के केस खोलना और उनसे राजस्व वसूली करना एक परेशानी वाली एवं हैरानी वाली प्रक्रिया है क्योंकि आज जो प्रापर्टी के मालिक होंगे, उनका दोष न होते हुए भी बेकार में पिसेंगें.

न्याय और न्यायलय की मंशा कभी भी कानूनन सही व्यक्ति को परेशान करने की नहीं हो सकती और इसलिए न्यायालय ऐसे निर्णय में यह भी साफ करें कि यदि निर्णय की जद में पुराने केस भी आते हैं तो कार्यवाही सिर्फ और सिर्फ दोषी व्यक्ति पर ही होना चाहिए. वर्तमान में जो कानूनी रूप से प्रापर्टी के मालिक हैं या प्रापर्टी की स्थिति पर कोई कार्यवाही नहीं होनी चाहिए.

आखिर फर्मों द्वारा टैक्स चोरी की सालों से क्या प्रक्रिया अपनाई जाती थी:

१. पार्टनरशिप फर्म बनाकर फर्म के नाम पर पहले सस्ते में प्रापर्टी खरीदी जाती थी.

२. कुछ सालों बाद जब प्रापर्टी के मार्केट रेट बढ़ जाते हैं तो उस प्रापर्टी का फिर मूल्यांकन कर उसका मूल्य फर्म की किताबों में दर्ज कर दिया जाता है.

३. नए पार्टनर को फर्म में लाया जाता है और प्रक्रिया अनुसार पुराने पार्टनर को उसकी किताबों में दर्ज पूंजी के अनुसार पैसा वापस कर दिया जाता है.

४. यह पूंजी नए पार्टनर द्वारा फर्म में दी जाती है और पुराने पार्टनर को दे दी जाती है.

५. इस प्रकार पुराने पार्टनर दर्शाते हैं कि हमें सिर्फ हमारी लगाई गई पूंजी वापस मिली है जो कि हमारी लागत थी और इस प्रकार अधिक पैसे मिलने के बाद उस पर कोई टैक्स नहीं दिया जाता.

६. इसी प्रकार प्रापर्टी पुनः मूल्यांकन पर फर्म द्वारा कोई केपिटल गेन टैक्स या स्टाम्प शुल्क नहीं दिया जाता.

७. नए पार्टनर अब फर्म और इसकी प्रापर्टी के नए मालिक हो जाते हैं, वो भी बिना स्टाम्प शुल्क दिए.

माननीय उच्च न्यायालय ने नोट किया कि आयकर की धारा २(४७)(ii) और ४७(ii) का फायदा उठाकर फर्मों द्वारा ऐसा किया जाता था, जिसको विभाग द्वारा धारा ४५(४) को लाकर एवं धारा २(४७)(ii) को हटाकर सही कर दिया गया है.

उपरोक्त केस में पार्टी का कहना था कि फर्म के विघटन पर ही यह टैक्स लागू होगा, इस पर माननीय उच्च न्यायालय ने साफ किया कि धारा ४५(४) के अंतर्गत अब फर्म का विघटन ही नहीं, फर्म में किसी भी प्रकार का बदलाव इसके दायरे में आता है और इसीलिए निर्णय विभाग के पक्ष में सुनाया गया एवं हाईकोर्ट ट्रिब्यूनल द्वारा दिए गए पिछले निर्णयों को पलट दिया गया.

इस तरह से अब पार्टनरशिप फर्म में किसी भी प्रकार के बदलाव पर यह जरूरी होगा कि पहले इस बदलाव से टैक्स कितना आ रहा है, उसका निर्धारण करना होगा.

सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय के बाद पार्टनरशिप फर्मों को इस धारा ४५(४) का ध्यान रखना होगा और विवाद से बचने के लिए उचित कर निर्धारण कर जमा करना होगा.

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