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 “यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमन्ते तत्र देवता

अर्थात्  “जिस कुल में नारियों की पूजा होती है वहीं देवता निवास करते हैं |

पुराने ज़माने से ही कहा जा रहा है कि औरते पैदा नहीं होती अपितु बनती है एवं उनमे दुनिया को बदलने की ताकत होती है, असमानता और संघर्ष की स्थिति में भी महिलाएं ऊपर उठने की क्षमता के साथ काम करती हैं और न केवल अपने जीवन को बदलती हैं बल्कि अपने पूरे समुदाय को बदलने का हौसला रखती है।

भारतवर्ष के पहले प्रधानमंत्री माननीय श्री पंडित जवाहर लाल नेहरु जी ने महिलाओ की समाज में महत्वता के बारे में सही कहा हैं कि:-

लोगों को जगाने के लिये महिलाओं का जागृत होना जरुरी है, एक बार जब वो अपना कदम उठा लेती है तो उनके पीछे–पीछे परिवार आगे बढ़ता है, गाँव आगे बढ़ता है और राष्ट्र विकास की ओर उन्मुख होता है।

आज भारत के विकास और उन्नति में नारीशक्ति का योगदान अतुल्य हैं । इतिहास में भी महिलाओ ने विशिष्ट भूमिका निभाई हैं, जैसे कि भारतीय नारीवाद की जननी – सावित्रीबाई फुले – जिन्होंने देश में लड़कियों के लिए पहला स्कूल शुरू करके देश में साक्षरता का नया दीपक जलाया, जिससे महिलाये आत्मनिर्भर हो पायी, ताराबाई शिंदे – जिनकी कृति स्त्री पुरुष तुलना को पहला आधुनिक नारीवादी पाठ माना जाता है और पंडिता रमाबाई – इन्हे ब्रिटिश राज द्वारा कैसर-ए-हिंद पदक से सम्मानित किया गया क्योकि इन्होने विशिष्ट सामाजिक सेवा से ब्रिटिश भारत के समय एक समाज सुधारक के रूप में महिलाओं की मुक्ति के लिए के लिए कार्य किया था | इसी क्रम में ब्रिटिश राज के दौरान, राजा राम मोहन राय, ईश्वर चंद्र विद्यासागर और ज्योतिराव फुले जैसे कई समाज सुधारकों ने महिलाओं के  अधिकारों  और उथान के लिए लड़ाई लड़ी |  राजा  राममोहन  राय के  ही  प्रयासों  से  1829   में   सती   प्रथा को

समाप्त कर दिया गया एवं विधवाओं की स्थिति में सुधार के लिए ईश्वर चंद्र विद्यासागर के धर्मयुद्ध ने 1856 के विधवा पुनर्विवाह अधिनियम को जन्म दिया।

दुनियाभर  में  हो  रहे  बदलावों , जागरूकता , शिक्षा  एवं  समय -समय  पर दुनियाभर  में  हुए  विभिन्न   प्रकार  के  आंदोलनों के साथ दुनिया भर में महिलाओं के  अधिकारों  की  बात  शुरू हुई जिससे  भारत  भी अछूता नहीं रहा | सदियों से लेकर आज तक महिला के अधिकारों को संस्थागत, क़ानूनी एवं स्थानीय रीति-रिवाजों द्वारा अत्यधिक समर्थन मिला और देखते ही देखते महिलाओ को हर स्तर पर एक पहचान मिलने लगी और आज हमरे देश में महिलाओ को कानून के तहत विभिन्न अधिकार प्रदान किये गए है, जिनका संशिप्त विवरण निम्न प्रकार है:-

(1) संवैधानिक अधिकार:-

  • भारतीय संविधान की प्रस्तावना (preamble) में ही कहा गया है कि कानून की नज़र में सभी नागरिक एक सामान है | इसे अनुच्छेद 14 के माध्यम से एक मौलिक अधिकार भी बनाया गया हैं, जो सुनिश्चित करता है कि राज्य[1] किसी व्यक्ति को कानून के समक्ष समानता से वंचित नहीं कर सकता हैं और यह वर्ग विधान को प्रतिबंधित करता है । यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण प्रावधान है, जो महिलाओं को किसी भी महिला आधारित अपराध के खिलाफ समान कानूनी सुरक्षा प्रदान करता है।
  • अनुच्छेद 15(1) धर्म, जाति, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर किसी भी नागरिक के खिलाफ भेदभाव को प्रतिबंधित करता है। जबकि अनुच्छेद 15(3) महिलाओं के पक्ष में “सुरक्षात्मक भेदभाव” की अनुमति देता है, जिसके अनुसार राज्य महिलाओं के लिए विशेष प्रावधान कर सकता है और इस लेख का दायरा इतना व्यापक है कि इसमें रोजगार सहित राज्य की सभी गतिविधियों को शामिल किया जा सकता है।
  • अनुच्छेद 16 भारत के प्रत्येक नागरिक को समान रोजगार के अवसर सुनिश्चित करता है।
    माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने हमारे देश में यौनकर्मियों (prostitutes) को कुछ तकनीकी कौशल प्रदान कर देकर उन्हें सम्मान का जीवन प्रदान करने की आवश्यकता पर भी जोर दिया, जिसके माध्यम से वे अपने शरीर को बेचने के बजाय अपनी आजीविका कमा सकते हैं।

(2) शोषण के खिलाफ अधिकार:-

  • भारत के संविधान अनुच्छेद 23 में मानव के दुर्व्यापार और बलातश्रम को प्रतिबंधित करता है, जिसमें अनैतिक या अन्य उद्देश्यों के लिए महिलाओं की तस्करी का निषेध शामिल हैं। गौरव जैन बनाम भारत संघ[2] में, माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि वेश्याओं के बच्चों को अवसर की समानता, गरिमा, देखभाल, सुरक्षा और पुनर्वास का अधिकार हैं ताकि मुख्यधारा के सामाजिक जीवन का हिस्सा बन सके। अनैतिक व्यापार (निवारण) अधिनियम, 1986 (PITA) ने अनैतिक व्यापार (निवारण) अधिनियम, 1956 (SITA) में संशोधन किया है एवं यह अधिनियम केवल व्यावसायिक यौन शोषण के लिए तस्करी की निवारण के लिए प्रमुख कानून बना, अर्थात महिलाओं और लड़कियों के लिए वेश्यावृत्ति को रोकने हेतु। यौन कार्य को अपराध की श्रेणी  में  लाने के उद्देश्य से 2006 में, महिला और बाल विकास मंत्रालय ने एक संशोधन विधेयक यानी अनैतिक व्यापार (निवारण) संशोधन विधेयक 2006 का प्रस्ताव भी रखा था ।

(3) राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों (Directive Principles of State Policy) के अंतर्गत महिलाओ की विकास और सुशासन के लिए प्रावधान:-

  • भारत के संविधान के तहत महिलाओं के विभिन्न अधिकारों को कानूनों के माध्यम से लागू किया गया है। अनुच्छेद 39 (a) यह निर्देश प्रदान करता है कि नागरिकों, पुरुषों और महिलाओं को समान रूप से आजीविका के पर्याप्त साधन का अधिकार हैं।
  • अनुच्छेद 39 (d) यह सुनिश्चित करता है कि पुरुषों और महिलाओं दोनों के लिए समान काम के लिए समान वेतन हो। इसी अनुसरण में संसद ने समान पारिश्रमिक अधिनियम, 1976 अधिनियमित किया है, जो समान कार्य या समान प्रकृति के कार्य के लिए पुरुष और महिला श्रमिकों को समान पारिश्रमिक के भुगतान को वैधानिक अधिकार देता है, जिसे लिंग के आधार पर भेदभाव भी रुकता है। रणधीर सिंह बनाम भारत संघ[3] के मामले में, माननीय सुप्रीम कोर्ट ने माना कि समान कार्य के लिए समान वेतन एक संवैधानिक अधिकार हैं।
  • अनुच्छेद 39क को संविधान में (बयालीसवां संशोधन) अधिनियम 1976 के तहत शामिल किया गया हैं, इसी अनुसरण में कानूनी सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 जिसके अंतर्गत महिलाये मान्यता प्राप्त कानूनी सेवा प्राधिकरणों से निशुल्क विधिक सहायता पाने की हक़दार हैं । जिला, राज्य और राष्ट्रीय कानूनी सेवा प्राधिकरण क्रमशः जिला, राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर गठित हैं। कानूनी सेवाओं में किसी भी न्यायालय या न्यायाधिकरण या प्राधिकरण के समक्ष किसी भी मामले या अन्य कानूनी कार्यवाही के संचालन में सहायता करना और कानूनी मामलों पर सलाह देना शामिल है।
  • अनुच्छेद 42 में प्रावधान है कि राज्य काम और मातृत्व राहत (Maternity Benefit) के लिए न्यायसंगत और मानवीय स्थिति हासिल करने के लिए प्रावधान करेगा और इस उद्देश्य के लिए मातृत्व लाभ अधिनियम, 1961 बनाया गया है।

(4) महिलाओं को विशेष आरक्षण:-

  • 73 वें और 74 वें संवैधानिक संशोधनों ने पंचायतों/ नगर पालिको के अध्यक्ष के रूप में महिलाओं के एक निश्चित अनुपात को सुनिश्चित करने के तहत अनुच्छेद 243- D(3), (4) और 243- T(3), (4) के अनुसार, प्रत्येक पंचायत/नगर पालिका में निदेशक चुनाव सीटों की कुल संख्या में से कम से कम एक तिहाई सीटों (एससी और एसटी सहित) महिलाओं के लिए आरक्षित होंगी।

(5) मौलिक कर्तव्य (Fundamental Duties):-

  • अनुच्छेद 51क (ड.) महिलाओं की गरिमा के लिए अपमानजनक प्रथाओं को त्यागता है।

(6) वैवाहिक और पारिवारिक मामले:-

  • हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 24 और 25 के अंतर्गत वाद लम्बित रहते महिलाओं को भरण- पोषण तथा स्थायी निर्वाहिका और भरण-पोषण का अधिकार और हिंदू विवाह अधिनियम, केवल हिंदू महिलाओं के लिए भरण-पोषण की सुविधा प्रदान करता है।
  • दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 125 के अंतर्गत पति पर पत्नी (तलाकशुदा समेत) का भरण-पोषण का दायित्व होता है, सिवाय इसके कि जब पत्नी व्यभिचार में रहती है या बिना उचित कारण के अपने पति के साथ रहने से इनकार करती है या जब आपसी सहमति से दोनों अलग-अलग रहते हैं। उक्त धारा के तहत, कोई भी भारतीय महिला चाहे उसकी जाति और धर्म कुछ भी हो, अपने पति से भरण-पोषण का दावा कर सकती है।
  • हिंदू दत्तक तथा भरणपोषण अधिनियम 1956 की धारा 18 के अंतर्गत हिंदू पत्नी, चाहे वह इस अधिनियम के पूर्व या पश्चात् विवाहित हो, अपने जीवनकाल में अपने पति से भरणपोषण पाने की हक़दार होगी । हिंदू पत्नी अपने भरणपोषण के दावे को समपहृत किए बिना अपने पति से पृथक् रहने के लिए हक़दार होगी। धारा 19 के अंतर्गत कोई हिंदू पत्नी, अपने ससुर से भरणपोषण प्राप्त करने की हक़दार होगी , परंतु यह जब तक कि वह स्वयं अपने अर्जन से या अन्य संपत्ति से अपना भरण पोषण करने में असमर्थ हो या उस दशा में जहां उसके पास अपनी कोई भी सम्पत्ति नहीं है। धारा 20 के अंतर्गत पिता का अविवाहित पुत्री के भरण पोषण करने की बाध्यता जो स्वयं अपने उपार्जनों या अन्य सम्पत्ति से भरण पोषण करने में असमर्थ हो ।
  • विशेष विवाह अधिनियम 1954 के तहत किये गए विवाह में धारा 36 और 37 के अंतर्गत महिलाओं को वादकालीन निर्वाहिका तथा स्थायी निर्वाहिका और भरणपोषण का अधिकार हैं।
  • लिवइन रिलेशनशिप (Live-in Relationship) एवं भरणपोषणचनमुनिया बनाम वीरेंद्र कुमार सिंह कुशवाहा[4] के मामले में, माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि एक लिव-इन रिलेशनशिप में महिला पार्टनर धारा 125 , दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 के तहत पुरुष के विरुद्ध भरणपोषण की हकदार होगी। अदालत ने आपराधिक न्याय प्रणाली में सुधार पर मलीमठ समिति की 2003 की रिपोर्ट का हवाला दिया, जिसमें सिफारिश की गई थी कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 में “पत्नी” शब्द में संशोधन किया जाना चाहिए ताकि एक ऐसी महिला को शामिल किया जा सके जो काफी लंबी अवधि के लिए पत्नी की तरह पुरुष के साथ रह रही हो। माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इंद्र सरमा बनाम वी.के.वी. सरमा[5] में निर्धारित आधारों को लागू करते हुए कहा कि जब लिव-इन रिलेशनशिप “विवाह की प्रकृति” की अभिव्यक्ति के भीतर आता है, तो बेंच ने कहा कि महिला को अंतरिम भरण-पोषण का दावा करने का अधिकार मिल सकता है।
  • घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 का उद्देश्य संविधान के तहत गारंटीकृत महिलाओं के अधिकारों की अधिक प्रभावी सुरक्षा प्रदान करना है, जो परिवार के भीतर होने वाली किसी भी प्रकार की हिंसा और इससे जुड़े या उसके प्रासंगिक किसी भी प्रकार के मामलों के लिए कड़ी सज़ा का प्रावधान रखता हैं ।
  • दहेज निषेध अधिनियम, 1961 के अधिनियम का उद्देश्य दहेज लेने या देने पर रोक लगाना है तथा इस कारण समाज में उपजे दहेज़ से सम्भंदित अपराधों को रोकना है।
  • मातापिता और वरिष्ठ नागरिकों का भरणपोषण तथा कल्याण अधिनियम, 2007 के तहत बुज़ुर्ग महिलाओं को भरणपोषण का अधिकार के साथ  अन्य  संरक्षण भी  प्रदान  किया  गया  है।

(7) संपत्ति पर महिलाओं के अधिकार:-

  • हिंदू महिला संपत्ति का अधिकार अधिनियम, 1937 महिलाओं को बेहतर अधिकार देने के लिए परिवर्तन लाने वाले सबसे महत्वपूर्ण अधिनियमों में से एक है, माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने विनीता शर्मा बनाम राकेश शर्मा[6] में एक ऐतिहासिक निर्णय पारित किया, जिसमें कहा गया कि हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 का पूर्वव्यापी प्रभाव (retrospective application) होगा। 2005 के संशोधन ने लैंगिक समानता के संवैधानिक विश्वास के साथ संरेखित करने के लिए अधिनियम की धारा 6 में संशोधन किया गया और कहा गया कि बेटी जन्म से ही बेटे की तरह अपने आप में एक सहदायिक मानी जाये जाएगी। विनीता शर्मा मामले ने इस प्रश्न को सुलझाया, 2005 के संशोधन ने बेटी का पुत्र के समान अधिकार माना, भले ही संशोधन से पहले पिता जीवित हो। 2005 में संशोधन के साथ हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 में पहली बार महिलाओं को समान विरासत अधिकार प्रदान किया गया, जिससे महिलाओं की सीमित संपत्ति की अवधारणा को समाप्त कर दिया।अरुणाचल गौंडर बनाम पोन्नुस्वामी[7] के फैसले में, माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि एक हिंदू पुरुष की बेटियां, मरते हुए पिता द्वारा विभाजन में प्राप्त स्व-अर्जित और अन्य संपत्तियों को विरासत में पाने की हकदार होंगी और परिवार के अन्य संपार्श्विक सदस्यों पर वरीयता प्राप्त करेंगी।

(8) भारतीय दंड सहिंता 1860, भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 एवं भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872:-

  • धारा 114 भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872: बलात्कार के लिए कुछ अभियोगों में सहमति की अनुपस्थिति के रूप में उपधारणा-बलात्कार के लिए एक अभियोजन में खंड (क) या खंड (ख) या खंड (ग) या खंड (घ) या खंड (ड.) या खंड (च) के तहत भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 376 की उप-धारा (2) के तहत, जहां आरोपी द्वारा यौन संबंध साबित होते हैं और सवाल यह है कि क्या यह कथित महिला की सहमति के बिना बलात्कार का आरोप लगाया गया था और वह अदालत के समक्ष उसके साक्ष्य में कहा गया है कि उसने सहमति नहीं दी, न्यायालय यह मान लेगा कि उसने सहमति नहीं दी थी।
  • आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम, 2013 ने भारतीय दंड संहिता में बदलाव पेश किए धारा 354 के बाद नयी धाराएँ 354A – 354D जोड़ी गयी जिसके अंतर्गत यौन उत्पीड़न, महिला का  पीछा  करना  आदि  के  जुर्म  में  गिरफतारी  का  प्रावधान  है। तेजाब हमलों को एक विशिष्ट अपराध बना दिया जिसमें कम से कम 10 साल की कैद की सजा हो सकती है और जिसे आजीवन कारावास और जुर्माने तक बढ़ाया जा सकता है।
  • मर्यादा और शालीनता महिलाओं का निजी अधिकार माना जाता है परन्तु जब कोई महिलाओ की  शालिनत या गरिमा के साथ खिलवाड़ करता है तो धारा 509, भारतीय दंड संहिता, के तहत ऐसे प्रावधान  है, जिनके तहत उसे कड़ी से कड़ी सज़ा भुगतनी पड़ती है।
  • भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 यह सुनिश्चित कराती हैं कि अगर किसी अपराध में कोई महिला अपराधी है तो उसकी गिरफ्तारी और तलाशी एक महिला पुलिस अधिकारी द्वारा ही की जाएगी, उसकी चिकित्सा परीक्षा एक महिला चिकित्सा अधिकारी द्वारा या एक महिला चिकित्सा अधिकारी की देखरेख में की जानी चाहिए। बलात्कार के मामलों में, जहां तक ​​संभव हो, एक महिला पुलिस अधिकारी को प्राथमिकी दर्ज करनी चाहिए। इसके अलावा, उसे सूर्यास्त के बाद और सूर्योदय से पहले एक महिला पुलिस अधिकारी द्वारा मजिस्ट्रेट की विशेष अनुमति के बिना गिरफ्तार नहीं किया जा सकता है।

भारत में महिलाओं के उत्थान और विकास से संबंधित कानूनों का विश्लेषण

(9) सती आयोग (निवारण) अधिनियम 1987:-

  • इसका उद्देश्य सती प्रथा को रोकना हैं और ऐसे कृत्य का महिमामंडन करना दण्डनीये अपराध की श्रेणी में माना गया है।

(10) कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (निवारण, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2013:-

  • यह अधिनियम महिलाओं को उनके कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न से बचाने के लिए बनाया गया है। इस अधिनियम से पूर्व कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के लिए माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने विशाखा बनाम राजस्थान राज्य[8] में दिशा निर्देश दिए थे। माननीय न्यायालय ने यौन उत्पीड़न को नए रूप में परिभाषित किया है जिसमे शारीरिक संपर्क, लैंगिक अनुकूलता की मांग या अनुरोध, लैंगिक अत्युक्त टिप्पणियाँ करना, अश्लील साहित्य दिखाना या कोई लैंगिक प्रकृति का कोई अन्य अवांछनीय शारीरिक मौखिक या अमौखिक आचरण करना शामिल किया गया।

(11) महिलाओं का अश्लील चित्रण (प्रतिषेध) अधिनियम, 1986:-

  • अधिनियम के तहत विभिन्न ऐसे प्रावधान है, जिनमे महिलाओ के अश्लील चित्रण को व्यापक अर्थ देने के साथ इस अपराध में शामिल व्यक्तियों के लिए सख्त सजा का प्रावधान किया गया है। इस अधिनियम का मुख्य उद्देश्य विज्ञापन, प्रकाशन, लेखन एवं पेंटिंग या किसी अन्य रूप में महिलाओं के अश्लील चित्रण या महिलाओं के वस्तुकरण को रोकना है।

(12) भारतीय सेना में समान अवसर:-

  • सचिव, रक्षा मंत्रालय बनाम बबीता पुनिया[9] में माननीय सर्वोच्च न्यायालय एक ऐतिहासिक निर्णय में, महिलाएं को भारतीय सेना में समान अवसरों प्रधान करे और शॉर्ट सर्विस कमीशन में महिलाओं को स्थायी कमीशन दें और उन्हें युद्ध के अलावा अन्य सभी सेवाओं में कमांड पोस्टिंग दें।
  • माननीय राजस्थान उच्च न्यायालय में माही यादव बनाम भारत संघ[10] जनहित याचिका में अधिवक्ता माही यादव ने देश के सभी सैनिक स्कूलों एवं मिलिट्री स्कूलों में छात्राएं को उनके लिंग के कारण उक्त स्कूलों में प्रवेश वर्जित होने का मुद्दा न्यायालय के समक्ष उठाया। जिसके उपरांत माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने इसी विषय में केंद्र सरकार को निर्देश दिए कि शिक्षा का अधिकार छात्राएं को मौलिक अधिकार हैं। इन्ही के फलस्वरूप आज सैनिक स्कूलों में लड़को के साथ लड़कियों को भी प्रवेश दिया जाने लगा हैं।

(13) विवाहित बेटी का अनुकंपा के आधार पर सरकारी नौकरी का अधिकार:-

  • माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने कर्नाटक सरकार बनामN. Apporva Shree[11] में फैसला सुनाया कि एक विवाहित बेटी अनुकंपा के आधार पर सरकारी नौकरी की हकदार है। न्यायालय  ने कहा कि यह धारणा कि एक बेटी अब शादी के बाद अपने पिता के घर का हिस्सा नहीं है और अपने पति के घर का एक विशेष हिस्सा बन जाती है, पुरानी मानसिकता को दर्शाता है।
  • माननीय राजस्थान उच्च न्यायालय ने शेफाली सांखला बनाम राजस्थान राज्य[12] में माननीय सर्वोच्च न्यायालय के उक्त निर्णय के दिर्ष्टयतो के मद्देनज़र विवाहिता बेटी को नियुक्ति प्रदान की हैं।

(14) गर्भावस्था के पूर्व, दौरान और बाद में महिलाओ के अधिकार

  • मातृत्व लाभ अधिनियम (1961) :-
  • महिलाओं के मातृत्व के समय के दौरान उनके रोजगार की रक्षा करता है और उन्हें मातृत्व लाभ और कुछ अन्य लाभों का अधिकार देता है। मातृत्व लाभ (संशोधन) अधिनियम, 2017 मातृत्व लाभ अधिनियम (1961) में संशोधन पारित किया गया है। यह अधिनियम संविदात्मक या सलाहकार महिला कर्मचारियों के साथ-साथ उन महिलाओं पर भी लागू होता है जो संशोधन अधिनियम के प्रवर्तन के समय पहले से ही मातृत्व अवकाश पर हैं।
  • मातृत्व लाभ संशोधन अधिनियम ने महिला कर्मचारियों के लिए (जिनके दो से कम जीवित बच्चे हो) उपलब्ध सवैतनिक मातृत्व अवकाश की अवधि को मौजूदा 12 सप्ताह से बढ़ाकर 26 सप्ताह कर दिया है। इसके अंतर्गत महिलाओं को घर से काम करने की सुविधा भी उपलब्ध हैं।
  • माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने मातृत्व लाभ अधिनियम, 1961 के प्रावधानों की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिका (हमसानंदिनी नंदूरी बनाम भारत संघ) पर सुनवाई की, जिसमें कहा गया है कि एक महिला जो क़ानूनी रूप से तीन महीने से कम उम्र के बच्चे को गोद लेती है 12 सप्ताह की अवधि के लिए मातृत्व अवकाश के लिए पात्र होगी।
  • महिलाओं के मातृत्व के समय के दौरान उनके रोजगार की रक्षा करता है और उन्हें मातृत्व लाभ और कुछ अन्य लाभों का अधिकार देता है। मातृत्व लाभ (संशोधन) अधिनियम, 2017 मातृत्व लाभ अधिनियम (1961) में संशोधन पारित किया गया है। यह अधिनियम संविदात्मक या सलाहकार महिला कर्मचारियों के साथ-साथ उन महिलाओं पर भी लागू होता है जो संशोधन अधिनियम के प्रवर्तन के समय पहले से ही मातृत्व अवकाश पर हैं।
  • गर्भधारण पूर्व और प्रसव पूर्व निदान तकनीक (लिंग चयन का निषेध) अधिनियम (1994):-
  • गर्भाधान से पहले या बाद में लिंग चयन को प्रतिबंधित करता है और लिंग निर्धारण के लिए प्रसव पूर्व निदान तकनीकों के दुरुपयोग को रोकता है जिससे कन्या भ्रूण हत्या होती है।
  • सरोगेसी (विनियमन) अधिनियम, 2021:-
  • जो वाणिज्यिक सरोगेसी को प्रतिबंधित करता है लेकिन परोपकारी सरोगेसी की अनुमति देता है। यह अधिनियम ‘प्रगतिशील’ है और इसका उद्देश्य सरोगेट मदर के शोषण को रोकना है।
  • मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट, 1971:-
  • इस अधिनियम को सुरक्षित गर्भपात के संबंध में चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में हुई प्रगति के कारण पारित किया गया था। प्रजनन स्वास्थ्य सेवाओं तक सार्वभौमिक पहुँच प्रदान करने के एक ऐतिहासिक कदम में भारत ने व्यापक गर्भपात देखभाल प्रदान करके महिलाओं को और अधिक सशक्त बनाने हेतु अधिनियम 1971 में संशोधनकिया। नए मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी (संशोधन) अधिनियम 2021 को व्यापक देखभाल के लिये सार्वभौमिक पहुँच सुनिश्चित करने हेतु चिकित्सीय, उपचारात्मक, मानवीय या सामाजिक आधार पर सुरक्षित और वैध गर्भपात सेवाओं का विस्तार करने हेतु लाया गया है।
  • एयर इंडिया बनाम नरगेश मीर्ज़ा[13] में, एयर इंडिया और इंडियन एयरलाइंस के लिए काम करने वाली एयर होस्टेस ने रोजगार नियमों की संवैधानिकता को चुनौती दी है जो पहली गर्भावस्था पर रोजगार समाप्ति के लिए प्रदान करते हैं। माननीय सुप्रीम कोर्ट ने इस नियामक आवश्यकता को मनमाना और अनुचित बताया, और भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन माना । इसके बजाय, न्यायालय ने एक संशोधन का समर्थन किया कि वास्तव में उनकी तीसरी गर्भावस्था पर दो जीवित बच्चों के साथ एयरहोस्टेस की सेवानिवृत्ति की आवश्यकता होगी और कहा कि ऐसा संशोधन महिलाओं के स्वास्थ्य और राष्ट्रीय परिवार नियोजन योजना के हित में होगा।

(15) महिलाओं के खिलाफ अपराधों के लिए मुआवजा:-

  • बलात्कार मानव जाति के खिलाफ सबसे जघन्य अपराधों में से एक है, क्योंकि किसी भी अन्य अपराध में अपने आप में सभी लागतें शामिल नहीं होती हैं जैसे लेनदेन लागत + सामाजिक लागत + मनोवैज्ञानिक लागत। बोधिसत्व गौतम बनाम सुभ्रा चक्रवर्ती में, सर्वोच्च न्यायालय ने इसे दोहराया। “बलात्कार केवल एक महिला (पीड़ित) के व्यक्ति के खिलाफ अपराध नहीं है, यह पूरे समाज के खिलाफ अपराध है। यह एक महिला के पूरे मनोविज्ञान को नष्ट कर देता है और उसे गहरे भावनात्मक संकट में डाल देता है। यह केवल उसकी दृढ़ इच्छा शक्ति से है कि वह समाज में अपना पुनर्वास करती है, जो बलात्कार के बारे में पता चलने पर, उसे उपहास और अवमानना ​​​​में देखता है। इसलिए, बलात्कार सबसे घृणित अपराध है। यह बुनियादी मानवाधिकारों के खिलाफ अपराध है और इसका उल्लंघन भी है पीड़ित को मौलिक अधिकारों का सबसे अधिक सम्मान दिया जाता है, अर्थात् जीवन का अधिकार, जो अनुच्छेद 21 में निहित है।”
  • महिलाओं और बच्चों के खिलाफ यौन अपराधों से संबंधित कानून में अपर्याप्तता को दूर करने के लिए आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम, 2013 अधिनियमित किया गया था, जिसके कारण निर्भया फंड (Nirbhya Fund) का निर्माण हुआ।
  • धारा 357क भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता, 1973, इस उद्देश्य के लिए बनाई गई निधि से बलात्कार और यौन अपराधों के पीड़ितों को मुआवजा प्रदान करने के लिए राज्य पर दायित्व प्रदान करती है। निपुण सक्सेना बनाम भारत संघ मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने राष्ट्रीय कानूनी सेवा प्राधिकरण (NALSA) के लिए यौन अपराधों और एसिड हमलों के लिए पीड़ित मुआवजे के लिए मॉडल नियम तैयार करने के लिए एक समिति का गठन करना उचित समझा। इसके बाद, समिति ने महिला पीड़ितों/यौन उत्पीड़न/अन्य अपराधों की उत्तरजीवियों के लिए मुआवजा योजना – 2018 को अंतिम रूप दिया। योजना के अनुसार, सामूहिक बलात्कार की पीड़िता को न्यूनतम 5 लाख रुपये और अधिकतम 10 लाख रुपये तक का मुआवजा मिलेगा।इसी तरह, बलात्कार और अप्राकृतिक यौन उत्पीड़न के मामले में पीड़िता को न्यूनतम 4 लाख रुपये और अधिकतम 7 लाख रुपये मिलेंगे। एसिड अटैक के पीड़ितों को चेहरे की विकृति के मामले में न्यूनतम 7 लाख रुपये का मुआवजा मिलेगा, जबकि ऊपरी सीमा 8 लाख रुपये होगी। अदालत ने तब उक्त योजना को पूरे भारत में लागू होने के लिए स्वीकार कर लिया, जो कि देश का कानून है।

निष्कर्ष

स्त्रैदेवः,स्त्रैप्राणः

भारत में महिलाएं अब हर एक क्षेत्र  में , चाहे  वो शिक्षा, रक्षा खेल, राजनीति, मीडिया, कला एवं संस्कृति, और विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी आदि क्षेत्रों में पूरी तरह से भाग लेती हैं.भारतीय महिलाओं को पुरुष प्रधान समाज, वर्ग और धर्म के उत्पीड़न के तहत विकसित होने में बेहद कठिन समय मिला है, लेकिन अब चुप्पी तोड़ने का समय है। महिलाओं को सम्मान का अधिकार है। अगर हर माता-पिता अपने बेटे को महिलाओं का सम्मान करना और उनके साथ सम्मान से पेश आना सिखाते, तो एक दिन ऐसा आता जब उन्हें अपनी बेटी की सुरक्षा का डर नहीं होता। यह एक वास्तविक और समग्र शिक्षा होगी। बेशक, हमारी मानसिकता और पितृसत्तात्मक विचारों को बदलने की जरूरत है, जिन्होंने सदियों से भारतीय मानसिकता को अपनी चपेट में लिया है। भारतीय कानून महिलाओं की बहुत अच्छी तरह से रक्षा करता है। महिलाओं के इन सबसे आम लेकिन बुनियादी अधिकारों को हर भारतीय महिला को जानना चाहिए। जो कानून जानता है उसे किसी हथियार की जरूरत नहीं है। कानून ही उसका हथियार है जो उसे सबसे शक्तिशाली व्यक्ति बनाता है। अपने अधिकारों के बारे में जागरूकता आपको स्मार्ट और न्यायपूर्ण बनाती है। यदि आप अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हैं, तभी आप घर, कार्यस्थल या समाज में आपके साथ हुए किसी भी अन्याय के खिलाफ लड़ सकते हैं।[1] “राज्य” की परिभाषा अनुच्छेद 12 में दी गयी हैं।

[2] (1997) 8 SCC 114

[3] (1982) 1 SCC 618

[4] (2011) 1 SCC 141

[5] (2013) 15 SCC 755

[6] (2020) 9 SCC 1

[7] 2022 SCC Online SC 72

[8] (1997) 6 SCC 241

[9] (2020) 7 SCC 469

[10] DBCWP 3018/2016

[11] Special Leave to Appeal (C)No.20116/2021

[12] SBCWP 9769/2018

[13] AIR 1981 SC 1829

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Authors Details : Majesty Legal, स्थापना 2013, एक कानूनी फर्म है, जो की विधिक राय और कानूनी प्रतिनिधित्व की सेवाएँ उपलब्ध करवाती हैं। उपर्युक्त लेख का उद्देश्य वर्तमान कानूनों के बारे में ज्ञान प्रदान करना है, लेख में प्रस्तुत राय व्यक्तिगत प्रकृति की हैं और कानूनी सलाह के रूप में नहीं मानी जानी चाहिए।

Yatharth Gupta – Assosciate Majesty Legal & Advocate, Hon’ble Rajasthan High Court, Jaipur

Ashwini Sharma – Associate, Majesty Legal

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Founder of law firm – Majesty Legal (Advocates & Legal Consultants), Standing counsel for CGST, FEMA,FERA, and ED (Government of India), Standing counsel for Legal Aid, Rajasthan High Court, Jaipur, Standing counsel/consultant for leading industries, companies and firms. View Full Profile

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